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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

अधिकतर काम करने योग्य भारतीयोंको ही साथ ले जाते थे । अब वैसा करनेके बदले हमें दो हिस्सों में बाँट दिया गया। कुछको सैनिकोंकी कब्रोंके आसपास उगी हुई घास खोदकर निकालने के लिए भेजा और कुछको कब्रिस्तान साफ करने के लिए भेजा। कुछ दिन तक इस तरह चला। इसी बीच बारबर्टन के मुकदमेके बाद लगभग पचास भारतीय छूट गये ।

उसके बाद हमें हमेशा बगीचेमें काम मिलता रहा । उसमें खोदना, लुनना, नींदना आदि काम करने पड़ते थे । इस कामको भारी नहीं कहा जा सकता और मानना होगा कि यह बहुत तन्दुरुस्ती देनेवाला था । लगातार नौ घंटे तक ऐसा काम करनेके कारण पहले तो जी ऊबता है, पर आदत हो जानेपर ऐसा नहीं होता ।

इस कामके सिवा हरएक कोठरी में पेशाब आदिकी जो बाल्टी होती है, उसे उसी कोठरीके आदमीको उठाकर ले जाना पड़ता है। मैंने देखा कि ऐसा काम करने में हमारे लोगों को बहुत हिचक होती है। सच पूछिए तो इसमें हिचक का कोई कारण नहीं है । काम करने में अप्रतिष्ठा या दोष मानना गलत है। इसके सिवा, जेल जानेवालेकी ऐसी वृत्ति निभ नहीं सकती। कई बार यह सवाल उठता था कि कोठरीसे पेशाबकी बाल्टी कौन ले जायेगा | अगर हम सत्याग्रहकी लड़ाईका तत्त्व पूरी तरह समझ लें, तो यह सवाल उठना ही नहीं चाहिए, बल्कि ऐसा काम करनेके लिए हमारे बीच स्पर्धा होनी चाहिए और जिसके हिस्से में आये उसे वह काम करने में अपना सम्मान समझना चाहिए। कहनेका मतलब यह कि मान इसमें नहीं है कि सरकार वैसा काम हमें सौंपे, लेकिन जब हमें वह काम करना ही है, तो फिर करनेवालोंमें से जो पहले उसके लिए तैयार होगा वह विशेष मानका पात्र होगा ।

जब हम कष्ट उठानेके लिए तैयार हुए हैं, तो फिर एक-दूसरे से ज्यादा कष्ट उठाने के लिए भी हमें तैयार रहना चाहिए और जिसे ज्यादा कष्ट उठाना पड़े उसे उसमें अधिक सम्मानका अनुभव करना चाहिए। ऐसा उदाहरण श्री हसन मिर्जाने पेश किया था। श्री हसन मिर्जा फेफड़ोंके बहुत बुरे रोग से पीड़ित हैं और उनका स्वास्थ्य बड़ा नाजुक है । फिर भी उन्होंने अपने हिस्सेमें जो भी काम आया उसे खुशी से किया। इतना ही नहीं, उन्होंने इस बात की भी परवाह नहीं की कि इसका उनकी तबीयतपर क्या असर होगा । एक बार एक काफिर सन्तरीने उन्हें बड़े दारोगाका पाखाना साफ करनेका काम सौंपा। उन्होंने तुरन्त उसे स्वीकार कर लिया। ऐसा काम उन्होंने कभी नहीं किया था, इसलिए उन्हें उलटी हो गई। लेकिन इसकी उन्होंने परवाह नहीं की। वे दूसरा पाखाना साफ कर रहे थे, इतने में मैं वहाँ जा पहुँचा और मैंने उन्हें यह काम करते हुए आश्चर्य के साथ देखा । उनके प्रति मेरा प्रेम उमड़ आया। पूछताछ करनेपर पहलेवाले पाखाने की घटनाका पता लगा । एक बार उसी काफिर सन्तरीको शायद बड़े अफसरने आज्ञा दी कि भारतीयोंके लिए खास तौरसे रखे गये पाखाने साफ करनेके लिए दो भारतीय कैदियोंको बुलाया जाये । सन्तरी मेरे पास आया और उसने दो आदमियोंकी माँग की। मुझे लगा कि इस कामके लिए तो मैं ही ज्यादा योग्य माना जा सकता हूँ, इसलिए मैं ही गया ।

मुझे तो ऐसे कामसे कोई नफरत है ही नहीं । मैं ऐसा मानता हूँ कि इस किस्मका काम करने की हमें आदत डालनी चाहिए। ऐसे कामके प्रति हम नफरत रखते हैं, उसीका यह नतीजा है कि हमारे आँगन और पाखाने ज्यादातर गन्दे दिखाई पड़ते हैं । इतना ही नहीं,