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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

करते, यद्यपि मनमें तो दुःखी होते ही हैं। इस सम्बन्ध में मैंने डॉक्टर से बात की। उसने कुछ कैदियोंकी जाँच उन्हें स्टोरमें ले जाकर की, लेकिन हमेशा वैसा करनेके लिए वह सहमत नहीं हुआ। इस सम्बन्ध में संघने लिखा-पढ़ी की है।[१] लिखा-पढ़ी अब भी चल रही है। इस बारेमें सरकारसे लड़ना उचित है । जेलमें यह बहुत पुराना रिवाज है, इसलिए उसे एकाएक तो वे नहीं बदलेंगे। तब भी उसके बारेमें विचार किया जाना चाहिए ।

पुरुषोंके बीच हों फिर, अपने अवयव छिपानेकी जरूरत नहीं है। इसके सिवा, दूसरा आदमी हमारे गुह्य अवयवोंकी ओर देखेगा ही, ऐसा माननेका कोई कारण नहीं है। हमारा मन निर्दोष हो तो प्रकृतिके दिये हुए ये अवयव छिपानेकी हमें क्या आवश्यकता है? मैं जानता हूँ कि मेरे ये विचार सभी भारतीयोंको विचित्र मालूम होंगे। फिर भी, मुझे लगता है कि इस सम्बन्ध में हमें गहरा विचार करना चाहिए और देखना चाहिए कि सच बात क्या है। इस तरहकी अड़चनें खड़ी करने से हमें अन्तमें अपनी लड़ाईमें नुकसान होता है। पहले भारतीय कैदियोंकी जाँच डॉक्टर बिल्कुल नहीं करता था। पर एक बार दो-तीन भारतीयोंसे उसने कुछ सवाल पूछे, जिनके जवाब में उन्होंने कहा कि उन्हें कोई रोग नहीं है। डॉक्टरको कुछ सन्देह हो गया, इसलिए उसने ऐसा जवाब पानेपर भी उन कैदियोंकी जाँच की और वे झूठे निकले। तबसे डॉक्टरने भारतीय कैदियोंकी भी पूरी जांच करनेका निर्णय किया। इससे हम देख सकते हैं कि जब हमारी राहमें कोई अड़चन आती है तब उसका कारण ज्यादातर हम खुद ही होते हैं।

जोहानिसबर्गसे वापस आया

जैसा कि ऊपर कहा गया है, मुझे ४ नवम्बरको फोक्सरस्ट वापस ले गये। उस समय भी मेरे साथ एक सन्तरी था। मेरी पोशाक कैदीकी ही थी; लेकिन उस बार मुझे पैदल नहीं चलाया गया, गाड़ीमें स्टेशन ले जाया गया। अलबत्ता, टिकट दूसरे दर्जेका नहीं, तीसरे दर्जेका था। रास्तेके लिए मुझे आधा पौंड डवल-रोटी और डिब्बेवाला गोमांस दिया गया। मांस लेनेसे मैंने इनकार कर दिया और नहीं लिया। रास्ते में सन्तरीने दूसरा आहार लेनेकी अनुमति दी। स्टेशनपर पहुँचा तो वहाँ कुछ भारतीय दर्जी खड़े थे। उन्होंने मुझे देखा । बात तो हो नहीं सकती थी। मेरी पोशाक आदि देखकर उनमें से एक भाई रोने लगा। मुझे पोशाक आदिका कोई दुःख नहीं है, इतना कहनेका भी अधिकार नहीं था। इसलिए मैं यह सब देखता रहा। हम दोनोंको एक अलग डिब्बा दिया गया था। उसके पासके डिब्बेमें एक दर्जी यात्री था । उसने अपने खाने में से थोड़ा खाना मुझे दिया। हाइडेलबर्ग में श्री सोमाभाई पटेल मिले। उन्होंने खाने के लिए स्टेशन से खरीदकर कुछ चीजें मुझे दीं। जिस बहनसे उन्होंने यह सब खरीदा था, उसने पहले तो हमारी लड़ाईके प्रति अपनी सहानुभूति दिखानेके लिए मूल्य लेने से इनकार कर दिया; लेकिन बाद में जब श्री सोमाभाईने बहुत आग्रह किया तब उसने नामके लिए सिर्फ

  1. नवम्बर २४ और दिसम्बर १, १९०८ को लिखे अपने दो पत्रों में ब्रिटिश भारतीय संघने टान्सवाल जेलके गवर्नरसे इस बातके विरुद्ध आपत्ति प्रकट की थी कि कैदियोंको डॉक्टरी जाँचके लिए घंटे-भरसे भी ज्यादा समय तक खुलेमें नंगा रखा जाता है। इन प्रार्थनापत्रोंका उत्तर देते हुए जेल-निदेशकने इस बातसे इनकार कर दिया कि कैदियोंको जाँचके लिए अपेक्षित समयसे अधिक देरतक उक्त स्थितिमें रखा जाता है । यह पत्र व्यवहार १९-१२-१९०८ के इंडियन ओपिनियन में प्रकाशित हुआ था । ट्रान्सवालके मन्त्रियोंने भी जनवरी ३०, १९०९ की एक टिप्पणीमें इस आरोपका खण्डन किया था।