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पत्र : लॉर्ड कर्जनको

सिर्फ अँगुलियोंकी छाप देनेकी बात कभी मूल आपत्ति नहीं बनाई गई। आपत्ति कानूनकी भावनापर की गई थी, क्योंकि कानून इस झूठे आरोपपर आधारित था कि अनधिकारी ब्रिटिश भारतीय बड़े पैमानेपर संगठित रूपसे ट्रान्सवालमें आ रहे हैं ।

पढ़े-लिखे भारतीयोंके दर्जेके बारेमें हमारी आपत्ति यह है कि जनरल स्मट्स ट्रान्सवालके प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियम (इमिग्रेंट्स रिस्ट्रिक्शन ऐक्ट) की व्याख्या ऐसी करते हैं जिससे अपेक्षित शिक्षा प्राप्त ब्रिटिश भारतीय निषिद्ध प्रवासी हो जाते हैं और उनपर वह निषेध १९०७ के एशियाई कानूनसे लगाया गया है ।

ब्रिटिश भारतीयोंका कहना यह है कि ऐसा निषेध जातीयताकी नींवपर आधारित होने से साम्राज्योय नोतिके खिलाफ जाता है; जब प्रवासो प्रतिबन्धक अधिनियमपर मंजूरी दी गई थी तब साम्राज्यीय नीतिके खिलाफ जानेका कोई इरादा नहीं था; और किसी भी हालत में ब्रिटिश भारतीय मानते हैं कि वे ऐसी जातीय निर्योग्यताको मंजूर नहीं कर सकते जिससे, श्री चेम्बरलेनके[१] शब्दों में, "महामहिम सम्राट्के करोड़ों प्रजाजनोंका अपमान होता है। "

ब्रिटिश भारतीयोंका कहना है कि शिक्षा सम्बन्धी योग्यता प्राप्त भारतीयोंको कानूनमें समान अधिकार दिया जाये। उसके बाद अगर कानूनपर इस तरह अमल किया जाये कि शिक्षा-परीक्षा देनेपर ऊँची शिक्षा पाये हुए छ: से ज्यादा भारतीय [ एक वर्षके अन्दर ] उपनिवेशमें न आ सकें, तो उनको इसमें कोई आपत्ति नहीं होगी। कानूनके अमल में ऐसी असमानता इस समय केप, नेटाल और आस्ट्रेलियामें मिलती है। ब्रिटिश भारतीय इस पूर्वग्रहको मंजूर करके इसके आगे झुक गये हैं, लेकिन उनका कहना है कि प्रवासके मामलेमें जातीय भेदभाव दाखिल करना असह्य होगा |

अनाक्रामक प्रतिरोध

इस उद्देश्यको पूरा करने के लिए ब्रिटिश भारतीयोंने प्रार्थनापत्रों और शिष्टमण्डलोंके द्वारा अपना पूरा जोर लगा दिया है। उन्होंने अपनी एक सार्वजनिक सभामें[२] यह गम्भीर प्रतिज्ञा की थी कि वे १९०७ के एशियाई कानूनके आगे न झुकेंगे और १९०८ के कानूनके लाभ तबतक न उठायेंगे जबतक ऊपर बताई गई शिकायत दूर नहीं की जाती। इसलिए बहुत-से भारतीयोंने इस प्रतिज्ञाके मुताबिक कैद भोगी है। यह संघर्ष अबतक दो सालसे ज्यादा असंतक चल चुका है और २,००० से ज्यादा भारतीय कैदकी सजा भुगत चुके हैं। इनमें से ज्यादातरकी सजा सख्त थी। सैकड़ों लोग देशसे निकाले गये हैं और वे उसी वक्त लौट आये हैं। बहुत-से परिवार माली तौरपर बर्बाद हो चुके हैं। बहुत-से भारतीय व्यापारियोंने भारी नुकसान उठाया । कुछने तो अपना कारोबार भी बन्द कर दिया है। संघके अध्यक्षने अपनी मालमताका कब्जा [अपने लेनदारोंको ] देना मंजूर किया है,[३] ताकि सरकार उसे बिना परवाने व्यापार करनेके जुर्ममें किये गये जुर्मानोंकी वसूलीमें जब्त न कर ले। कई भारतीय व्यापारी उनके उदाहरणका अनुसरण करनेके लिए तैयार हैं। बेशक कुछ भारतीयोंने अपनी कमजोरीकी वजहसे एशियाई कानूनोंको मंजूर कर लिया है और अभी कुछ औरोंके भी हार मान लेनेकी सम्भावना है;

  1. जोजेफ चेम्बरलेन, ( १८३६-१९१४); उपनिवेश-मन्त्री, १८९५-१९०३ ।
  2. देखिए खण्ड ७, पृष्ठ ८०-२ ।
  3. देखिए "पत्र : लेनदारोंको ", पृष्ठ १५६-५७