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१११. श्री काछलियाका आत्मत्याग

ट्रान्सवालके [ब्रिटिश भारतीय] संघका हरएक अध्यक्ष अपने पूर्वगामीसे ज्यादा योग्य साबित हुआ है, इससे प्रकट होता है कि भारतीय समाज आगे बढ़ रहा है। श्री काछलिया जेल जा चुके हैं। अब उन्होंने स्वेच्छापूर्वक गरीबी अपनाने का इरादा जाहिर किया है। श्री काछलियाकी आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी है कि कोई ऐसा नहीं कह सकता कि उनके पास था ही क्या और उन्होंने दिया ही क्या । उन्हें [ अपने व्यापारमें ] खासा मुनाफा है, तो भी वे उसे छोड़ने के लिए तैयार हो गये हैं। उनके लेनदार उन्हें दिवालिया घोषित करा देंगे, इसकी उन्हें परवाह नहीं है। वे इसमें अपना मान समझते हैं । इसीको हम बड़ी कमाई कह सकते हैं। यह सब श्री काछलिया देशके लिए कर रहे हैं। वे अपनी टेक रखना चाहते हैं । यह सच्चा आत्मबलिदान - सच्चा आत्मत्याग - है। हम श्री काछलियाको बधाई देते हैं।

इस सत्कार्यको छूत लगनी शुरू हो गई है। श्री अस्वातने श्री काछलियाकी वीरताका अनुकरण किया है। उन्हें भी हम बधाई देते हैं ।

यह दुकानदारोंको कसौटीका अवसर आया है। दुकानदारोंके पक्षमें बचाव हम कई बार लिख चुके हैं। उन्होंने नुकसान सहा है। उनमें से कई जेल भी गये हैं। हम इस सबका उल्लेख समय-समयपर करते रहे हैं। किन्तु सभी दुकानदारोंकी खरी कसौटीका समय आज आया है। उन्होंने फेरीवालोंकी तरह सारी तकलीफें एक साथ नहीं उठाईं; अब उसका समय आया है। श्री काछलिया और श्री अस्वातने करके दिखा दिया है। देखना है, दूसरे दूकानदार क्या करते हैं। लगभग चौवालीस दूकानदारोंने अपनी सही देकर यह कहा है कि वे परवाने (लाइसेंस) नहीं लेंगे और अपनी दुकानें बन्द रखेंगे। जो ऐसा करनेके लिए तैयार हैं, उनका कर्तव्य है कि वे सामने आयें और श्री काछलियाके कामको बल पहुँचायें। हमारी शेष लड़ाईका दारमदार दुकानदारोंपर है। यदि लड़ाई ज्यादा लम्बी चली तो उसकी जोखिम दूकानदारोंके सिर पड़ेगी।

सभी जानते हैं कि अपने दिवालिया होनेसे श्री काछलियाकी इज्जत गई नहीं, बल्कि बढ़ी है। लेनदार भी यह जानते हैं कि दोष श्री काछलियाका नहीं है। श्री काछलियाने अपने पदकी शोभा बढ़ाई है। तब फिर दूसरे दूकानदार डरेंगे किसलिए? उन्हें डरना तो पाँव पीछे हटानेसे चाहिए। लड़ाईके समय आगे बढ़नेमें डर होता ही नहीं।

[गुजराती से]
इंडियन ओपिनियन, ३०-१-१९०९

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