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भाषण : प्रिटोरियाकी सभामें

हैं। जो जेलके रसको रस मानकर चखते हैं, वे कदापि पीछे नहीं हटेंगे, बल्कि बार-बार जेल जायेंगे ।

मेरे छूटते समय मुख्य वार्डरने मुझसे कहा कि “आपको फिरसे जेल न आनेकी सलाह देना निरर्थक है; क्योंकि आप उसे माननेवाले तो हैं नहीं।" इससे जाहिर होता है कि उसके मनपर सत्याग्रहकी कैसी छाप पड़ी है। मुझे बाहर सुख मिलता नहीं। मैं जेलमें नियमसे ईश्वरकी प्रार्थना कर सकता था। बाहर मुझे उसके लिए समय ही नहीं मिलता। जेलमें कैदी उठकर बिस्तर समेट कर तैयार हो जायें, इसलिए सवेरे साढ़े पाँच बजे बत्ती जला दी जाती थी और फिर आधे घंटे बाद बुझा दी जाती थी । बत्तीके बुझनेपर अँधेरेमें कुछ कैदी एक दूसरेकी बुराई करते। मुझे तो उस समय ईश्वरकी प्रार्थना करनेका अच्छा अवकाश मिलता था। कलसे मुझे ऐसी फुरसत और सुविधा नहीं मिलेगी। आपके खयालसे मुझे सुख होगा । लेकिन, मैं तो मानता ही नहीं कि जेलमें दुःख और बाहर सुख है। जो जेल जानेसे डरते हैं, उन्होंने पंजीयन करा लिया, और करा रहे हैं। फिर भी उनका भी एक कर्तव्य है, जिसे वे पूरा कर सकते हैं। हमारे सच्चे रास्तेसे तो किसीको कोई विरोध नहीं होगा, और यदि हो तो वह भारतीय नहीं कहला सकता, बल्कि भारतकी जड़ खोदनेवाला कहलायेगा। मुझे श्री हाजी कासिमसे बात करनेका समय मिल गया, यह अच्छा हुआ। हमें क्या करना चाहिए, यह आप उनसे पूछेंगे तो वे बतायेंगे । और यदि आप तदनुसार करेंगे तो वह मदद करने जैसा ही होगा। जेलसे छूटनेका मुझे सुख नहीं है, बल्कि दुःख है। आज श्री व्यासके यहाँ नाश्ते में मुझे शक्करके लड्डू दिये गये । परन्तु वे मुझे जहर-जैसे लगे, क्योंकि श्री दाउद मुहम्मद, श्री रुस्तमजी, श्री जोशी, और दूसरे लोग तथा, स्वार्थी बनकर कहूँ तो, मेरा बड़ा लड़का हरिलाल अभी जेलमें है। उन्हें अभी ढाई महीनेसे ज्यादा वक्त जेलमें काटना है। मुझे अच्छा तो तभी लगेगा, जब मैं फिर जेल जाऊँ और उनके बाद छोड़ा जाऊँ। अभी समझमें नहीं आता कि यह कैसे सम्भव होगा। मेरा तो राग-रंग और सुख - सब-कुछ जेलमें ही है। अपनी प्रतिज्ञाके खयालसे मुझे जेल ही अच्छी लगती है। मैं अपनी शक्ति-भर तो जेल जाने और लोगोंके बाद छूटनेकी ही कोशिश करता हूँ; परन्तु जेलमें रहना सम्भव नहीं हो रहा है । आपसे मुझे यही कहना है अथवा, कहिए, यही विनती करनी है कि साहसी लोगोंका जेल जाना ही उत्तम है। जिनसे ऐसा न हो वे, मैंने श्री हाजी कासिमसे जो कहा है, वह करें। ब्रिटिश भारतीय संघ और लोग भिखारी बन गये हैं। यह मुझे जेलमें श्री पोलकके पत्रसे मालूम हुआ है। तो अब जो व्यापार कर रहे हैं उन्हें अपनी थैलियोंमें हाथ डालना चाहिए। मैंने सुना तो है कि यह शुरू हो गया है; मगर मैं इसे पर्याप्त नहीं मानता । आप अधिक उदारतासे दें। उससे ईश्वर भी प्रसन्न होगा, और आपकी उदारता उचित मानी जायेगी। आप लोग इतनी अच्छी संख्यामें इकट्ठे हुए, इसके लिए आपका आभार मानते हुए मैं फिर अनुरोध करता हूँ कि माँगें पूरी होनेतक आप जेलें भरते रहें, और जब माँगें मंजूर हो जायें तभी शान्त हों। इसके सिवा दूसरी कोई सलाहु या राह है भी नहीं । आप भी यह देखते और मानते होंगे ।[१]

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २९-५-१९०९
  1. इसके बाद गांधीजी तमिल लोगोंके खयालसे अंग्रेजीमें बोले; देखिए अगला शीर्षक ।