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जेल कौन जा सकता है?

शरीर नीरोग और ठीक होना चाहिए। ऐसा न होनेसे कुछ लोग घबरा गये हैं। सत्याग्रही समझता है कि उसको अपना शरीर किरायेपर मिला है। उसको चाहिए कि वह उसे अच्छी तरह साफ-सुथरा और सशक्त रखकर अपनेको अच्छा किरायेदार साबित करे।

यह बात कोई भी समझ सकता है कि जिसको सोनेके लिए स्प्रिंगदार पलंग और नर्म गद्दा चाहिए वह एकाएक जमीनपर नहीं सो सकता। ऐसी स्थितिमें इस प्रकारकी आराम-तलबी भी छोड़ देनी चाहिए।

यह देखा गया है कि जेलमें खानेका सवाल सबसे बड़ा सवाल बन गया है। यह भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है। जिसने अपनी जीभको भाषण और स्वादके सम्बन्धमें जीत लिया, उसने बहुत कुछ जीत लिया। ऐसे लोग बहुत कम देखनेमें आते हैं जिनको स्वादिष्ट भोजन नहीं चाहिए। गरीब काफिर भी खानेके लिए मरते हैं। यह कोई छोटा-मोटा सवाल नहीं है। फिर भी जो परमार्थकी दृष्टिसे जेल जाना चाहता है, उसका छुटकारा तो स्वादेन्द्रियको जीतनेमें ही है। ठीक यह है कि जो कुछ भी मिला है उसके लिए ईश्वरका धन्यवाद किया जाये। प्रत्येक भारतीयको विचार करना है कि भारतमें तीस करोड़ लोगोंमें तीन करोड़को दिनमें एक ही बार खाना मिलता है और वह भी एक टुकड़ा रोटी और नमकके सिवा और कुछ नहीं। तब जेलमें तीन-तीन बार अदलता-बदलता खाना मिले, उससे गुजारा कर लेना कोई बड़ी बात नहीं। भूखमें सब अच्छा लगता है। हो सकता है, कुछ दिन जेलका खाना अच्छा न लगे; लेकिन पीछे वह रुच जाता है। जो भारतीय सत्याग्रही जेल जाना चाहता है उसको सादा खानेकी आदत जल्दी डाल लेनी चाहिए।

झूठी प्रतिष्ठा रखनेवाला जेल नहीं जा सकता। वहाँ जेलके सन्तरियोंकी ताबेदारी करनी होती है और ऐसा काम करना पड़ता है जो नीचा माना जाता है। उसको करनेसे इज्जत जाती है, ऐसा तो किसी दिन किया नहीं--यह समझकर जेलमें उस कामको न किया जाये तो परिणाम बुरा होता है। यह ताबेदारी है, यह खयाल मनके कारण है। जिसका मन स्वतन्त्र है वह [मैलेकी] बाल्टी उठानेपर भी राजाकी भाँति स्वतन्त्र है। वह उस जगह बाल्टी उठानेमें ताबेदारीके बजाय अपनी इज्जत समझता है।

अन्तमें रहे धीरज महाराज। सब लोग जेल जाते ही दिन गिनने लग जाते हैं। इससे दिन लम्बे लगने लगते हैं। बाहर बरस बीत गये और वे हमने गँवा दिये; फिर भी वे हमें भारी नहीं मालूम पड़े। जेलके तीन दिन तीन बरस-जैसे लगे। इसका कारण क्या है? इसका जवाब यह है कि जेल जाना मनको अच्छा नहीं लगा। सचाई यह है कि जेल जानेमें सुख मानना है। माँ जैसे बच्चेके लिए दुःख सहकर सुख मानती है, वैसे ही हमें देशके लिए--सत्यके लिए--दुःख सहते हुए सुख मानना है। दिन जैसे जेलमें बीतेंगे वैसे बाहर नहीं बीतते, हमेशा यह मानकर और धीरज रखकर जितनी जेल मिली हो उतनी भोग लेनी चाहिए और वहाँ समयका सदुपयोग करना चाहिए, अर्थात् प्रभु-भजनमें, अच्छे विचारोंमें और अपने दोष खोजने में दिन गुजारने चाहिए। यह एक पंथ दो काजके समान होगा।

इस प्रकार छः गुण तो जेलयात्री में अवश्य होने चाहिए। दूसरे गुण अपने आप सूझ जायेंगे। किन्तु, प्रत्येक पाठकको हमारी सलाह है कि वह हमारे इन विचारोंपर मनन करे।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ५-६-१९०९