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ट्रान्सवालवासी भारतीयोंके मामलेका विवरण

कर दिया है। इस कार्रवाईसे बालक अपने माता-पिताओंसे अलग कर दिये गये हैं; और दक्षिण आफ्रिकामें उत्पन्न लड़कोंको, जिनके लिए भारत विदेश है, बिना एक पाईके भारत भेज दिया गया है। और, यद्यपि लॉर्ड क्रू ने इस बातका खण्डन किया है कि ट्रान्सवालके अलावा अन्य दक्षिण आफ्रिकी उपनिवेशोंके अधिवासी भी निर्वासित किये जाते हैं, फिर भी ऐसी घटना कमसे-कम एक तो हुई ही है। उक्त मामले में एक भारतीयको निर्वासित करके भारत भेज दिया गया है, यद्यपि उसमें शैक्षणिक योग्यता थी तथा वह इस कारण नेटाल या केपमें रह सकता था और उसको डेलागोआ-बेका अधिवास भी प्राप्त था।

४०. ये हैं वे साधन जिनका प्रयोग सरकार प्रतिज्ञाबद्ध भारतीयोंको अपनी इच्छाके अनुकूल झुकानेके लिए कर रही है। यद्यपि इन प्रयत्नों में वह अंशतः सफल हो गई है, लेकिन अभी ऐसे लोगोंकी खासी बड़ी संख्या शेष है जिनमें कमजोरीके कोई लक्षण नहीं दिखाई देते। उनमें एक तो श्री दाउद मुहम्मद हैं, जो मुसलमानोंमें सबसे ज्यादा प्रभावशाली हैं, और दक्षिण आफ्रिकी भारतीयोंके निर्विवाद नेता हैं। उनकी उम्र पचास सालसे अधिक है, और वे वर्षोसे ट्रान्सवालके निवासी हैं। दूसरे मान्य नेता हैं श्री पारसी रुस्तमजी। वे एक अत्यन्त प्रमुख पारसी हैं। उन्होंन (दूसरे धर्मोके बच्चों तक की) शिक्षाके लिए सैकड़ों पौंड खर्च किये हैं। ये दोनों सज्जन छः मासका सपरिश्रम कारावास भोग रहे हैं। दो भूतपूर्व साजेंट भी, जिन्होंने गत जूलू-विद्रोहमें काम किया था और जिन्हें तत्सम्बन्धी पदक प्राप्त हुए हैं, उतने ही दिनोंकी कैद भुगत रहे हैं। इस समय अन्तरात्माकी पुकारपर आपत्ति करनेवाले लगभग एक सौ व्यक्ति जेल काट रहे हैं, और इनमें से अधिकतर इस संघर्ष में एकाधिक बार जेल जा चुके हैं।

यूरोपीय कमेटी

४१. भारतीयोंके कष्टोंमें उनके प्रति सहानुभूतिसे प्रेरित होकर और उनके उद्देश्यके औचित्यमें विश्वास करते हुए जोहानिसबर्गके कतिपय प्रमुख यूरोपीयोंने उन्हें राहत दिलानेके लिए अपनी एक समिति बनाई है। इस समितिके अग्रणी हैं विधानसभाके सदस्य श्री विलियम हॉस्केन। समिति इस मामले में सरगर्मीसे काम कर रही है।

उपसंहार

४२. अब निवेदन यह है कि जनरल स्मट्स द्वारा किये गये वादेके अलावा, दोनों भारतीय माँगें तत्वतः न्यायसंगत हैं; उनको स्वीकार करना सरकारके लिए कठिन नहीं है; और उनको स्वीकार करानेके लिए ट्रान्सवालके भारतीयोंने एक लम्बे अर्सेतक निरन्तर दुःख झेला है। इन स्थितियोंमें वे अनुभव करते हैं कि उनकी प्रतिज्ञाकी रक्षा की जानी चाहिए और अगर साम्राज्य सरकार विदेशोंमें ब्रिटिश प्रजाजनोंकी रक्षा करना चाहे तो स्वशासित उपनिवेशोंकी इच्छाओंका खयाल रखनेकी बात उसमें आड़े नहीं आनी चाहिए—विशेषतः तब, जबकि इन प्रजाजनोंको प्रतिनिधित्व न प्राप्त हो, जैसा कि इस मामलेमें है।[१]

  1. अपने मूल रूपमें यह अनुच्छेद ऐसा नहीं था। उसमें लॉर्ड ऍम्टहिलके सुझावपर, जो उन्होंने अपने ४ अगस्तके पत्रमें दिया था, संशोधन कर दिया गया था। पत्रमें उन्होंने सलाह दी थी कि "यह कहनेसे हमें साम्राज्य- सरकारका सद्भाव प्राप्त नहीं होगा कि वह 'अपने कर्तव्यसे भागती रही' है, चाहे इस बातमें कितनी भी सचाई क्यों न हो। और अब स्थिति ऐसी आ गई है कि हमें उसका सद्भाव प्राप्त करना ही है। यह कहें तो कैसा रहे कि अगर साम्राज्य सरकार उपनिवेशोंमें ब्रिटिश प्रजाजनोंकी रक्षा उसी तरह करना चाहे जिस तरह वह विदेशों में करती है तो औपनिवेशिक स्वशासनके प्रति आदर-भाव उसमें आड़े नहीं आता?"