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नेटालवासी भारतीयोंके कष्टोंका विवरण

बात सिद्ध की जा सकती है। अगर प्रार्थी भारतीय हों तो उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा, उनका दायित्वभाव या उनके निहित स्वार्थोका कोई खयाल नहीं किया गया है। उदाहरणके लिए:

सन् १९०७ में इस दस्तावेजके दूसरे हस्ताक्षरकर्ताने वीनेनमें एक (न्यासी) ट्रस्टीसे एक कारोबार खरीदा था। परवाना-अधिकारीने इस कारोबारको उनके नाम बदलने और परवाना देने से इनकार कर दिया। परवाना-निकायमें अपील की गई तो उसने अधिकारीका निर्णय बहाल रखा। जब सर्वोच्च न्यायालयमें अपील की गई, उसने राहत देनेमें अपनी असमर्थता प्रकट की। सन् १९०६ में, इस दस्तावेजके चौथे हस्ताक्षरकर्ताके पास पोर्ट शेपस्टोनमें चलनेवाले एक कारोबारका परवाना था जो उसके नामपर बदल दिया गया था। परवानेको बदलनेकी बाकायदा इजाजत दी गई थी और एक बार उसे नया भी कर दिया गया था। लेकिन जब नया करनेके लिए दूसरी बार अर्जी दी गई तो व्यापारिक प्रतिस्पधियोंके उकसानेपर उसे नामंजूर कर दिया गया।

जाहिर है कि यदि व्यापारिक परवाना कानूनमें ऐसा संशोधन नहीं किया जाता जिससे पीड़ित पक्षको सर्वोच्च न्यायालयमें अपील करनेका अधिकार मिल जाये, तो किसी भी दिन नेटालके भारतीय व्यापारी बिलकुल मिट जायेंगे; और वह दिन बहुत दूर भी नहीं है।

गिरमिटिया प्रवासी कानून संशोधन अधिनियम, १८९५:

पिछले पचास वर्षोमें नेटाल मजदूरोंके लिए और अपनी समृद्धिके लिए गिरमिटिया भारतीय प्रवासियोंपर निर्भर रहा है। इस बातको पहलेके भी और आजके भी प्रायः प्रत्येक नेटाली राजनयिकने स्वीकार किया है। नेटालके मुख्य उद्योगोंका अस्तित्व लगभग पूरी तरहसे इन्हीं मजदूरोंपर निर्भर रहा है, लेकिन अपने जीवनके उत्तम वर्षोंकी उत्तम शक्ति उपनिवेशमें लगा देनेके बाद इन्हीं मजदूरोंको उपनिवेशमें प्रतिष्ठित स्वतन्त्र नागरिककी तरह बसने और अपना शेष जीवन बितानेका मौका नहीं दिया जाता। उन्हें दुबारा गिरमिट स्वीकार करने या उपनिवेशसे चले जाने के लिए लाचार किया जाता है और इसके लिए हर तरहकी कोशिश की जाती है। उसपर, उसकी पत्नीपर और उसके बच्चोंपर तीन पौंडका एक असह्य व्यक्ति कर थोपा गया है। यह कर वार्षिक है और इसका बोझ इतना ज्यादा है कि उसके कारण कितने ही गिरमिट मुक्त भारतीय बरबाद हो गये हैं; उससे भी ज्यादा भारतीयोंको आपत्तिजनक कार्य करनेके लिए बाध्य होना पड़ा तथा अनेक भारतीयोंका नैतिक पतन हुआ है। इस करके पक्ष में सिर्फ यही एक बात कही गई है कि उससे राजनीतिक मतलब सघता है। सम्राट्की सरकारके दृढ़ रवैयेके कारण उपनिवेशकी सरकार भारतीय गिरमिटिया मजदूरोंको गिरमिटकी अवधिके समाप्त होनेपर भारत वापस भेजनेकी अपनी प्रिय और चिराकांक्षित योजनाको अभीतक कार्यान्वित नहीं कर पाई है। लेकिन शिष्टमण्डलके सदस्य आदरपूर्वक निवेदन करते हैं कि उसी प्रकार न्याय और औचित्यके साथ सम्राट्की सरकारको यह अन्यायपूर्ण विशेष वार्षिक कर भी नामंजूर कर देना चाहिए था क्योंकि इसका भी वही परिणाम होता है।

शिष्टमण्डलके सदस्योंको लगता है कि उपनिवेशके, स्वतन्त्र भारतीयोंके और गिरमिटिया मजदूरोंके हितमें भी गिरमिटकी सारी पद्धति ही खत्म कर दी जानी चाहिए। उनका खयाल है कि ये अभागे लोग गिरमिटकी अवधिमें नेटालमें भारतकी अपेक्षा कुछ ज्यादा कमा लेते हैं, यह बात बहुत महत्त्वकी नहीं है। इससे उन्हें जो भौतिक लाभ होता है वह उनके