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२४९. पत्र: खुशालभाई गांधोको

लन्दन,
सितम्बर ७, १९०९

आदरणीय खुशालभाई,

आपका पत्र मिला।

मुझे इस बातसे बहुत सन्तोष है कि चि॰ छगनलाल परमार्थका जो काम कर रहा है, उसमें आप आड़े न आयेंगे और उसे आप मुझे ही सौंपा हुआ समझते हैं। मेरा तो पक्का विश्वास है कि दोनों भाई[१] और उनकी पत्नियाँ फीनिक्समें रहते हुए सच्चा आत्म-कल्याण कर रहे हैं। पश्चिमकी हवा फीनिक्समें कम ही है। पश्चिमकी जो बातें ग्रहण करने योग्य हैं, उनको ग्रहण करनेमें हमें तनिक भी झिझक नहीं होती। उससे जो-कुछ अच्छा फल निकलेगा उसका लाभ तो भारतको ही मिलनेवाला है। मैं तो यह मानता हूँ कि फीनिक्समें जो प्रवृत्ति चल रही है, वह धर्मकी प्रवृत्ति है।

चि॰ नारणदासने[२] अच्छा काम शुरू किया है। उसमें उसे प्रोत्साहन और आशीर्वाद दीजिएगा।

मैं अपने काममें भी गुरुजनोंका आशीर्वाद और प्रोत्साहन चाहता हूँ। सम्भव है, मेरी कोई प्रवृत्ति उनकी समझमें न आये। लेकिन मैं जो कुछ करता हूँ, उसमें मेरा कोई स्वार्थ नहीं है। मैं उसे धर्म मानकर सद्भावसे करता हूँ—उन्हें यह विश्वास तो होना ही चाहिए। अगर यह विश्वास हो गया हो तो मैं समझता हूँ कि मैं उनके आशीर्वादके योग्य हूँ।

अभीतक समझौता नहीं हुआ है। बातचीत चल रही है। राजनीतिक मामले बहुत विकट होते हैं। मुझे ऐसा लगा है कि यहाँ लोगोंको समझाने-बुझानेसे जेल जाना अधिक सुगम और कल्याणकारी है। फिर भी स्वभाव यहीं बनता है। ऐसी ही मुसीबतोंमें यह मालूम होता है कि अभीतक मनमें रागद्वेष कितना प्रबल है।

भाभीको[३] मेरा दण्डवत् कहिए और दूसरे बड़ोंको भी।

मोहनदासके दण्डवत्

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती प्रति (सी॰ डब्ल्यू॰, ४८९४) से।

सौजन्य: नारणदास गांधी।

 
  1. छगनलाल और मगनलाल गांधी।
  2. गांधीजीके भतीजे और छगनलाल गांधी के छोटे भाई।
  3. खुशालचन्द गांधीकी पत्नी।