२५१. पत्र: श्रीमती काशी गांधी को
इंग्लैंड,
सितम्बर ७, १९०९
मुझे ठीक-ठीक मालूम नहीं कि तुम्हारे साथ सन्तोक भी है या नहीं। मैंने पिछले हफ्ते तुम्हें एक चिट्ठी[१] लिखी थी।
तुमने फीनिक्समें जो अच्छी बातें सीखी हैं उन्हें वहाँ भूल न जाना या झूठी लज्जावश छोड़ न देना। ठीक तो यही माना जायेगा कि तुम और दूसरी सद्गुणी स्त्रियाँ विनयपूर्वक किन्तु दृढ़तासे, और निडर होकर वह सब करें जो करना उचित है। मैं यह चाहता हूँ कि हमने फीनिक्समें जो कुछ अच्छा मानकर किया है उसे तुम धीरज रखकर और नारायणका नाम लेकर चि॰ छगनलालकी सलाहसे वहाँ भी करो। मैंने तुम्हें यह पत्र यही बतानेके इरादेसे लिखा है।
मुझे अभी यहाँ रहना पड़ेगा। इसलिए अगर तुम चिट्ठी लिखोगी तो वह मुझे मिल जायेगी।
मोहनदासके आशीर्वाद
गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती प्रति (सी॰ डब्ल्यू॰ ४८९६) से।
सौजन्य: छगनलाल गांधी
२५२. पत्र: एच॰ एस॰ एल॰ पोलकको
[लन्दन]
सितम्बर ८, १९०९
आपकी चिट्ठी और कतरनें मिलीं। मेरे तारोंको प्रकाशित करनेकी आपको यह क्या धुन सवार हो गई? अगर आप उन गुजराती कतरनोंको कहीं पढ़ पाते जिन्हें आप मेरे पास भेजते रहे हैं तो इस सबपर आपको हँसी आती। गुजराती लेखक हमारी भारी जीत होनेकी घोषणा कर रहे हैं और स्वभावतः हमारे यहाँके मित्र आपकी और मेरी हँसी उड़ाते हैं। मैं अंग्रेजीके स्तम्भोंमें भी देखता हूँ कि आप आंशिक जीतका दावा और बोअरोंका विरोध करके इस कठिन स्थितिसे निकलनेका प्रयत्न कर रहे हैं। सौभाग्यसे यहाँ भारतीय समाचारपत्रोंकी ओर कोई ध्यान नहीं देता, क्योंकि हमारे संघर्षका विषय वर्जित-सा है।
- ↑ देखिए "पत्र: श्रीमती काशी गांधीको", पृष्ठ ३७३।