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पत्र: एच॰ एस॰ एल॰ पोलकको


प्राप्त कतरनोंमें मुझे आपके [सम्बन्धमें रचित] कविता[१] नहीं मिली है। मैंने आपका भेजा हुआ अनुवाद देखा है। [मैं] मूल कविता देखना [चाहता हूँ] मुझे 'सांझ वर्तमान'[२] का पटेटी अंक भी नहीं मिला है।

मुझे हर्ष है कि आप भारतके राष्ट्र-पितामहसे मिल लिये हैं। आपका [वर्णन] अत्यन्त करुण हैं।[३] मैं यह भी देखता हूँ कि आपने अपने बम्बई पहुँचनेपर जो ऊपरी चमक-दमक देखी थी, अब आप उसका भीतरी रूप देखने लगे हैं।

जब छगनलाल आपके पास होगा तब मुझे आशा है, आप उसके ही हितमें किसी रियायतके बिना उससे काम करवायेंगे और वहाँ जो-कुछ देखने और सीखने लायक है उसको देखने और सीखने देंगे। अगर लोग अनाक्रामक प्रतिरोधकी भावनाको पूरी तरह न समझें तो आप कमसे-कम नेताओंको तो उसका भान करा ही देंगे, यह मैं जानता हूँ। डॉ॰ मेहता बहुत चाहते हैं कि श्री गोखले उसको पूरी तरह समझ लें । मुझे आशा है कि आप जहाँ भी जायेंगे, श्री उमर आपके साथ रहेंगे, लेकिन अगर श्री हाजी मुहम्मद और दूसरे लोग भी अपने खर्चसे आपके साथ यात्रा करना चाहें तो आप उन्हें भी आमन्त्रित करें। इससे आपके कामका असर बढ़ जायेगा। क्या वहाँसे कोई 'इंडियन ओपिनियन' को गुजरातीमें विस्तृत विवरण भेज रहा है? अगर न भेज रहा हो तो इसकी तरफ ध्यान दें हमें एक लम्बे संघर्षकी तैयारी करनी है। इसी कारण मैं इन ब्योरेकी बातोंकी चर्चा कर रहा हूँ। यदि आपको ऐसे एक या अनेक ईमानदार व्यक्ति मिलें, जो पूरी तरह लोकसेवामें लगना चाहते हों, लेकिन डॉ॰ मेहताके सिद्धान्तके अनुसार ही लगना चाहते हों और यदि उनको सहायताकी आवश्यकता हो तो आपको याद होगा, हम इस विषयमें विचार करके कह चुके हैं कि इसपर गौर किया जा सकेगा।

  1. पोलक ९ सितम्बरको भारतीय संगीत सभाकी बैठक में गये थे, जहाँ उनके विषय में लिखी गई एक कविता उन्हें भेंट की गई।
  2. बम्बईसे प्रकाशित एक गुजराती सांध्य दैनिक। उक्त अंकमें पोलककी तस्वीर और उनका एक लेख छपा था।
  3. पोलकने लिखा था: "मैं शनिवारको दोपहरके बाद भारतके पितामहसे मिला था। उस दिन उनका जन्मदिवस था। महाप्रयाणसे पहले इस दुबले-पतले योद्धाका आराम करना एक मर्मस्पर्शी दृश्य उपस्थित करता था। जब हम वहाँ पहुँचे, वे आराम कुर्सीपर बैठे थे। उन्होंने निष्कपट भावसे हमारा स्वागत किया, और मुझे मेरे कामके लिए हार्दिक धन्यवाद दिया। उनके धन्यवाद देनेपर मुझे लज्जा महसूस हुई, क्योंकि उन्होंने इतना काम किया लेकिन उन्हें धन्यवाद नहीं मिला। उन्होंने मुझे आपको इंडियन ओपिनियन भेजनेके लिए, धन्यवाद देने को कहा। वे उसे नियमित रूपसे पढ़ते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि वे आपकी दृढ़ता और लगनकी प्रशंसा करते हैं। उनकी दृष्टिमें आपका पक्ष अत्यन्त न्यायानुकूल था। हम वहाँ देरतक नहीं रहे। उन्होंने शारीरिक और मानसिक थकानकी शिकायत की। वे 'केवल जी रहे हैं'—उनके लिए अब यही-भर शेष रह गया है। फिर भी उन्होंने एक पत्र सार्वजनिक सभाके लिए भेजा था। जब हम लौंटे तब हमने अन्तिम बार फिर उन्हें अपनी आराम कुर्सीपर बैठे देखा था। वे शान्त मुद्रामें कभी समुद्रकी और कभी पश्चिमकी ओर देख रहे थे। ऐसा लगता था कि वे शान्तिदायक मृत्यु-लोककी खोज कर रहे हों। यह सुन्दर था—किन्तु मैंने अपनेको तुच्छ और अभिभूत पाया। जैसाकि श्री गोखले कहते हैं, जब कोई दादाभाईके दर्शनके लिए जाता है, वह तीर्थयात्रा करता है। ८५ वर्ष! हो सकता है वे अगले वर्ष तक न रहें। वे बहुत ही कमजोर हो गये हैं।"