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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बुनियादी है। मुख्य अन्तर देनेके तरीकेका है। बाहरी दुनियाको इस बातसे कोई सरोकार नहीं कि यह काममें होनेवाला खर्च कहा जा सकता है या वेतन। वह तो हर अदायगीको सन्देहसे देखेगी, वह तो काम मात्रको शंकालु दृष्टिसे देखेगी और यह बात मानेगी ही नहीं कि लोग निस्स्वार्थ भावसे या किसी बड़े मुआवजेके बिना भी काम करते हैं। बम्बईमें हरएक व्यक्तिने [सम्पादक] के [विचारों] को उचित तिरस्कार-भावसे देखा है और आपने भी शायद वैसा ही किया होगा।[१] डॉ॰ मेहताने आपका [पत्र] देखा है। उन्होंने मुझे गुजरातीमें पत्र लिखा है, जिसका अनुवाद मैं आपके लिए कर रहा हूँ:

उन (अर्थात् आप) पर 'ऍडवोकेट ऑफ़ इंडिया' के लेखका प्रभाव पड़ा है, लेकिन वह इतना तिरस्कारके योग्य है कि उसपर ध्यान ही नहीं देना चाहिए। स्वार्थमय हेतु न होनेपर स्वार्थमय हेतु होनेका आरोप किया जाये तो उसको मनपर लेनेकी कोई बात ही नहीं है। जो अपने कर्तव्यका पालन कर रहा हो वह अनुचित आलोचनासे उत्तेजित क्यों हो? इसके विपरीत उसे जानना चाहिए कि इस अनुचित आलोचनाका कारण आलोचकका अज्ञान है। अगर किसी लोकसेवकके पास धन न हो तो उसके उचित भरण-पोषणका ध्यान रखना उनका कर्तव्य होता है जिनके पास धन हो। निश्चय ही उनके (आपके) सम्बन्धमें दक्षिण आफ्रिकामें जो व्यवस्था की गई, वह होनी ही चाहिए थी।

मैं आपको डॉ॰ मेहताकी सम्मतिका अनुवाद इसलिए भेज रहा हूँ कि वे अत्यन्त समंजस बुद्धि और गम्भीर व्यक्ति हैं। फिर, मैं यह भी चाहता हूँ कि आप उनके यथासम्भव निकट सम्पर्कमें आयें। इसके कारण आप जानते ही हैं।

मैं इस सप्ताह श्री पेटिटको भी पत्र लिख रहा हूँ। उनको लिखे पत्रकी[२] प्रतिलिपि इसके साथ है।

  1. वस्तुतः पोलकने वैसा नहीं किया था। उन्होंने गांधीजीको लिखा था। "आक्षेपको कोई भी व्यक्ति अहमियत नहीं देता, अलबत्ता इसके कारण गॉर्डनके प्रति क्षोभ पैदा होता है। मैंने नवीनतम आक्षेपका संक्षेप में उत्तर भेज दिया है। मुझे यह आवश्यक लगा। जबतक डाक नहीं चली जाती, तबतक यह प्रकाशित नहीं होगा। आज उन्होंने मुझे एक नोट भेजा था, जिसमें लिखा था कि मैं उनसे मिलूँ। मैं इस बारेमें क्या सोचता हूँ, मैंने उन्हें बता दिया—अर्थात् उनके द्वारा प्रयुक्त शब्दोंसे लोगोंको लगा कि मैं भाडेका आन्दोलनकारी हूँ। मैंने उन्हें समझाया कि मैं एक सॉलीसिटर हूँ, और ऐसी ही दूसरी बातें भी समझाई और कहा कि मैं अपने कानून-सम्बन्धी कार्यके लिए फीस लेता हूँ, तथा शिष्टमण्डलके सदस्यकी हैसियतसे मुझे मेरा खर्च मिलता है। मैंने उन्हें यह भी बताया कि सार्वजनिक निधिसे मुझे-जो कुछ मिलता है उससे मेरा खर्च पूरा नहीं पड़ता—मिली इस बातकी साक्षी बड़ी खुशीसे देगी! मैंने उनसे कुछ नहीं छिपाया और उन्होंने यह कहकर बात समाप्त की कि यह "एक सुन्दर अन्तर" है। तब मैं लौट आया। इसके बाद मैंने इंडियन ओपिनियन में (आपके द्वारा लिखित) अपना जीवनचरित भेजा। किन्तु इससे यही लगता है कि मेरे पारिश्रमिकको वेतन कहनेकी अपेक्षा फीस कहना ज्यादा अच्छा है। इससे कार्यका अवैतनिक स्वरूप सुरक्षित रहता है, और आखिर वेतनके रूपमें तो यह बहुत ही कम है, जबकि फीसके रूपमें ठीक है। मैं और आप तो इस सम्बन्धमें सब-कुछ समझते हैं। किन्तु ऐसे लोग सोचते हैं कि यह "एक सुन्दर अन्तर" है, और निःस्वार्थ कार्य की बात तो उनकी समझमें आ ही नहीं सकती। आप इसे साउथ आफ्रिकाको भेज सकते हैं।"
  2. यह उपलब्ध नहीं है।