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पत्र: मणिलाल गांधीको

लोग उनको विदाई देनेके लिए निकले थे, वैसे ही विदाई देनेके लिए निकलें और उनको ट्रान्सवाल भेज दें।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, २०-११-१९०९

३१९. पत्रः मणिलाल गांधीको

[लन्दन
अक्तूबर २२, १९०९]

चि० मणिलाल,

तुम्हारा पत्र मिला। मैं देखता हूँ कि तुम फिर अपनी पढ़ाईकी चिन्तामें पड़ गये हो। बात यही है न कि जब कोई पूछता है कि तुम किस दर्जेमें हो, तो तुम जवाब नहीं दे सकते? अब कहना, "बापूके दर्जेमें हूँ।" तुम्हें पढ़नेका खयाल क्यों आता रहता है? कमानेके खयालसे आता है तो वह ठीक नहीं है, क्योंकि ईश्वर दाना-पानी तो सभीको देता है। तुम मजदूरी करके भी पेट भर सकते हो। फिर हमें तो फीनिक्समें या और कहीं ऐसे ही काममें मरना है। तब कमानेकी बात ही क्या रही? अगर तुम्हें देशकी खातिर पढ़ना हो तो वैसा तुम अब भी कर रहे हो। अगर तुम्हें आत्मज्ञान प्राप्त करनेके लिए पढ़ना हो तो तुम्हें अच्छा बनना सीखना चाहिए। तुम अच्छे हो, यह तो सभी कहते हैं। अब रह गई ज्यादा काम करनेके खयालसे पढ़नेकी बात। उसके लिए उतावली करनेकी जरूरत नहीं है। फीनिक्समें जो हो सके वह करो। आगे फिर विचार कर लेंगे। अगर तुम्हें यह विश्वास हो कि मुझे तुम्हारी चिन्ता रहती है, तो तुम चिन्ता करना छोड़ देना।

तुमने डॉ॰ नानजीको ठीक उत्तर दे दिया।

ज्यादा क्या लिखूँ?

यही चाहता हूँ कि तुम निर्भय होकर रहो और मेरे ऊपर भरोसा रखो।

मोहनदासके आशीर्वाद

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती प्रति (सी॰ डब्ल्यू॰ ९१) से।

सौजन्य : सुशीलाबेन गांधी।