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३३३. भाषण: भारतीयोंकी सभा में[१]

[लन्दन
नवम्बर २, १९०९]

श्री गांधीने कहा कि जहाँतक दक्षिण आफ्रिकाका सम्बन्ध है, ब्रिटिश भारतीयोंके दर्जेका फैसला ट्रान्सवालमें होगा। भारतमें भी इसका दूरगामी प्रभाव हुआ है। निश्चय ही सभी भारतीय इस कार्यमें सहायता देनेका अधिकसे-अधिक प्रयत्न करेंगे, क्योंकि ट्रान्सवालकी लड़ाई उनके राष्ट्रीय सम्मानकी रक्षाकी लड़ाई है। मुझे लगता है कि अगर लन्दनमें और उसके आसपासके क्षेत्रों में प्रचार करनेके लिए कुछ भारतीय स्वयंसेवक आगे आयें तो लोकमत तैयार करनेकी दिशामें बहुत कुछ किया जा सकता है और इस लोकमतका प्रभाव तो आखिरकार ट्रान्सवालपर पड़ेगा ही। स्वयंसेवकोंको अपने मामूली कामकाज करते हुए कुछ वक्त निकाल लेना चाहिए। इसमें वे घर-घर जाकर सत्याग्रहियों और उनके परिवारोंके कष्ट दूर करनेके लिए चन्दा करें, जो कमसे-कम एक-एक फादिंग हो। वे लोगोंसे एक प्रलेखपर[२] दस्तखत भी करायें, जिसमें अनाक्रामक प्रतिरोधियोंके संघर्षके प्रति सहानुभूति प्रकट की जाये और उन्हें प्रोत्साहन देते हुए यह विश्वास व्यक्त किया जाये कि अधिकारी उनके कष्ट दूर करेंगे।[३]

[अंग्रेजी से]
इंडियन ओपिनियन, ४-१२-१९०९
 
  1. यह सभा श्री डेलगाडो और लन्दन मुस्लिम लीगके एक मन्त्री श्री आजादने बुलाई थी। सभा दिनके ३ बजे स्टैंडके एसेक्स-भवनमें श्री पारेखकी अध्यक्षता में हुई थी। इसमें हाजी हबीब और श्री एम॰ सी॰ आंगलियाने भी भाषण दिये। समामें लगभग ४० भारतीय आये थे। पूरे विवरणके लिए देखिए "शिष्टमण्डलकी आखिरी चिट्ठी" पृष्ठ ५२९।
  2. देखिए "पत्र: ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीयोंको", पृष्ठ ५२५-२६।
  3. सभाकी रिपोर्टमें बताया गया है कि २० भारतीयों और लगभग इतने ही यूरोपीयोंने श्री एल॰ डब्ल्यू॰ रिचके मार्गदर्शन में लन्दन में प्रचारका काम करनेके लिए अपनी सेवाएँ दीं। यह तय किया गया कि बादमें एक साप्ताहिक बुलेटिन निकाला जाये जिसमें संघर्ष की प्रगतिका ब्योरा दिया जाये और जिसका खच इस कार्य में सहानुभूति रखनेवाले लन्दनके अंग्रेज उठायें। "पत्र: एच॰ एस॰ एल॰ पोलकको", पृष्ठ ५१८-१९ भी देखिए।