पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/११५

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पवित्रता जब कि दूसरे ने यह वाक्य उच्चारण किया था- "सन जोड़े सन कपड़े ये तो आप खुदा, जो मूरख नहीं तिसको भया सौदा,, प्यारे पाठक ! पुस्तकोंके ज्ञान से क्या लाभ ? जो अपने जीवन का ही कुछ पता नहीं, पुस्तकें हमारे पास पड़ी हैं, और वह भी अंधेरी रात में । दोनों सोते हैं कोई ज्योति चाहिये, कोई इन्द्र की कला चाहिये- जिसके मरोड़ने से बिजली के लेम्प जल उठे, उस समय तो, अगर जी चाहै तो एक आध पुस्तक का एक प्राध अक्षर पढ़ने से भी कुछ समझ पड़े और कुछ लाभ हो। बात बहुत लम्बी होती जाती है, इन चचोलों से इन मखोलों से इन स्वप्नों से इस देश में कब पवित्रता आती है, ये तमाशे सारे ही अच्छे हैं, और ऊपर लिखे हुए कई एक साधन अधिक से अधिक पवित्रता के दाता हैं, पवित्रतावर्धक हैं परन्तु किसी २ को तो ये सब रोग के बढ़ाने के कारण होते हैं विद्या कैसी अच्छी चीज है, परन्तु कमीनेपन को की] विद्या अर्थात् केवल पुस्तकपूजा तो अधिक से अधिक उन्नति देती है, चतुरता आती है, कमीनेपन और नीचता के लिये उत्तम से उत्तम शस्त्र [शास्त्र] और दलील प्रमाण मिल जाते हैं, बल कैसी उत्तम चीज़ है, परन्तु एक ज़ालिम के हाथ यह भी तो नीचता. को अधिक करता है, धन इस समय के प्रचलित जीवन में कितना बड़ा संचित ज़ोर है, परन्तु देखो तो सही क्या कर रहा है ? इस तरह से हमें साधनों के अच्छे बुरे होने पर कोई पण्डिताई पूर्ण व्याख्या नहीं करनी, मुझे तो अपने देश की अपवित्रता के दूर करने और अपने भाई बहनों को मनुष्य बनाने के साधनों को देखना है, जब हम मनुष्य बन जायेंगे तब तो तलवार भी, ढाल भी, जप भी, तप भी, ब्रह्मचर्य भी वैराग्य भी सब के सब हमारे हाथ के कङ्कणों की तरह शोभायमान होंगे, और गुणकारक होंगे, इस बास्ते बनो पहिले , n ११५