पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/१५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अमेरिका का मस्त जोगी वाल्ट बिटमैन .* , ओः कैसे रच आनन्द भरी, रसभरी, दिल भरी कविता-रागभरी, पुंस्त्व भरी, स्त्रीत्व भरी, बालकत्व भरी, संसार भरी, अन्न भरी, फल भरी, पुष्प भरी ॥ १॥ श्रोः ! पशुओं की ध्वनि लाऊँ, आनन्द-काव्य मछलियों की फुर्ती, और उनके तुले हुए तैरते शरीरों को लाऊँ। चारों ओर हो विशाल समुद्र का जल, खुले समुद्र पर हों खुले बादबाँ, और चले हमारी नैया ॥ २ ॥ श्रोः ! आत्मानन्द का दरिया टूटा, पिंजड़े टूटे, दीवारें टूटी, घर बह गये और शहर बह गये । इस एक छोटी पृथ्वी से क्या होता है ? लाओ, दे दो सब नक्षत्र मुझे, सब सूर्य मुझे, और सब काल मुझे ॥ ३ ॥ n श्रोः! इस अनादि भौतिक पीड़ा को-इस प्रेमदर्द को-दरसोऊँ कैसे अंपनी कविता में । कैसे बहाऊँ उस श्रात्मगङ्गा के नीर को कैसे बहाऊँ प्रेमाश्रुओं को अपनी कविता में ॥ ४ ॥ जो पृथ्वी है सो हम हैं; जो तारे हैं सो हम हैं; श्रोः हो ! कितनी देर हमने उल्लुओं के स्वर्ग में काट दी । हम शिला हैं, पृथ्वी में फंसे हैं; हम खुले मैदान हैं, साथ साथ पड़े हैं। हम हैं दो समुद्र, जो आन मिले हैं। पुरुष का शरीर पवित्र है, स्त्रो का शरीर पवित्र है, फूलों का शरीर पवित्र है, वायु का शरीर पवित्र है, जल पवित्र है, धरती पवित्र है, आकाश पवित्र है, गोबर और तृण की झोपड़ी पवित्र है, प्रेम पवित्र है, सेवा पवित्र है, अर्पण पवित्र है । लो सब अपने आपको तुम्हारे हवाले करता हूँ। कोई भी हो, तुम सारी दुनिया के सामने मेरे हो रहो । . प्रकाशन काल-वैशाख संवत् १६७० वि० मई सन् १९१३ ई. १५४