निबन्ध की विशेषताएँ अथवा ग्रन्थ की अपेक्षा जिसमें विषय का संयत और विपद निरूपण होता है, अधिक स्थान रहता है । इस कथन से यह भी स्पष्ट है कि लेखक के व्यक्तित्व को अभि- व्यक्ति निबन्ध में आवश्यक या अनिवार्य ही नहीं प्रधान भी है। यदि यह कहा जाय कि पाश्चात्य लेखक तो निबन्ध को व्यक्तित्व-प्रकाशन के माध्यमरूप में ही अपनाते हैं तो असंगत न होगा। जे० बी० प्रोस्टले के अनुसार 'सच्चे निबन्धकार के लिए किसी विषयविशेष का बन्धन नहीं, वह इच्छानुसार कोई भी विषय चुन सकता है। उसमें किसो विषय को मनोऽनुकूल कर लेने की शक्ति होती है क्योंकि इस कौशल के द्वारा वह वास्तव में अपने व्यक्तित्व को अभिव्यक्ति करता है...एक-एक शब्द उसके अन्तर के तारों से मुखरित होकर निकलते है जिसमें उसके अन्तस्तल को अगाधता और अकुलता ध्वनि बन कर समायी रहती है ।' अंग्रेजो के निबन्धकार अपने निबन्धों में चिन्तन, विषयनिरूपण और अध्ययनप्रसूत सिद्धान्तों का हल्का-सा रंग ही देना उचित समझते हैं जिनका प्रकृतस्थल उनको दृष्टि में निबन्ध न होकर 'प्रबन्ध' है । उनके अनुसार यदि निबन्ध में इनका समावेश किया गया तो वह दुरूह हो जायेगा। व्यक्तित्व-चित्रण को प्राधान्य देने में लेखक को प्रस्तुत विषय के अतिरिक्त भी बहुत कुछ कहना पड़ता है, इसीलिए कैब ने निबन्ध को 'अनिवार्यरूप से अगूढ' और जानसन ने 'अव्यवस्थित' रचना माना है। जब आत्माभिव्यक्ति ही प्रधान हो गयी तो तुच्छ से तुच्छ विषयों पर भी निबन्ध प्रस्तुत हुए । अंग्रेजी के 'कैट्स' और 'ए पीस श्रॉफ चॉक' आदि निबन्ध ऐसे ही हैं । हिन्दी में भी इस श्रेणी के अनेक निबन्ध हैं, उदाहरण के रूप में पं० प्रतापनारायण मिश्र के 'आप', 'वात' आदि पं० बालकृष्ण भट्ट का 'ऑसू और डा० हजारीप्रसाद दिवेदो के 'नाखून क्यों बढ़ते हैं, 'आप फिर बौरा गये' आदि का नाम लिया जा २६
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