हिन्दीनिबन्ध-शैली का-विकास भारतेन्दु-युग में ही 'प्रेमघन' ने विचारप्रधान निबन्धो का प्रारम्भ किया; 'भारतसौभाग्य', 'वारांगना-रहस्य', 'वंगविजेता', 'संयोगिता- स्वयंवर' आदि की आलोचना द्वारा उन्होंने नये क्षेत्र में कदम बढ़ाया और आलोचना का सूत्रपात किया। उनके निबन्धों की शैली में वैय- क्तिक विलक्षणता स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है । संस्कृत के समस्त, सन्धिज आदि शब्दों के प्रयोग तथा अनुप्रास के योग से उन्होंने अपनी शैली को मनोरञ्जक बनाने का प्रयत्न किया है। उनके निबन्धों में विचार-सूक्ष्मता और अर्थ-गाम्भीर्य का सर्वप्रथम प्रयोग हुआ । पं० अम्बिकादत्त व्यास और गोविन्दनारायण मिश्र भी इसी श्रेणी के लेखक थे । द्विवेदी-युग अाधुनिक हिन्दीसाहित्य का परिमार्जन युग कहा जाता है । भारतेन्दु-युग की भाषागत अव्यावहारिकता, शिथिलता और व्या- करणहीनता को दूर कर उसे प्रौढ, परिष्कृत और अभिव्यञ्जनक्षम बनाने के उद्देश्य से द्विवेदीजी ने सरस्वती के सम्पादन- -कार्य को अपनाया। अन्य भाषाओं से प्रचलित शब्दों को हिन्दी का पुट देकर ही उन्होने स्वीकार किया और बँगला आदि के शब्दों, मुहावरों के आधिपत्य से भाषा का पिंड छुड़ा कर उसका संशोधन किया । 'भाषा की अनस्थि- रता' अादि निबन्ध लिख कर उन्होंने अन्य लेखकों को भी परिष्कृत- भाषा लिखने के लिए प्रोत्साहित किया । स्वतन्त्र रूप से विभिन्न विषयों पर उन्होंने अनेक विचारात्मक निबन्ध लिखे । 'विचार-विमर्श', 'साहित्य-संदर्भ', 'लेखाञ्जलि', 'प्राचीन कवि और पण्डित' आदि उनके विचारात्मक निबन्धों के संग्रह हैं। 'बेकनविचारावली के नाम से उन्होंने वेकन के निबन्धों का अनुवाद भी निकाला । द्विवेदी जी के निबन्ध दो प्रकार के हैं, प्रथम मनोरञ्जक और कौतूहलपूर्ण विषयों पर आधारित, दूसरे गहनविषयवाले । भाषानुकूल- शैली की द्विवेदी जी ने दृढ प्रतिष्ठा की। पहले प्रकार के निबन्धो में ३५
पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/३५
दिखावट