पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/३६

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v भूमिका उर्दू, फारसी, अंग्रेजी श्रादि के शब्दों, प्रचलित मुहावरों तथा हास्य और व्यङ्गयपूर्ण कथनों द्वारा उन्होंने शैली में सजीवता और रोचकता का समावेश किया है, प्रसाद तथा अोज के उचित सामञ्जस्य से उन्होंने उसमें प्रेषणीयता की प्राणप्रतिष्ठा की। दूसरे प्रकार के निवन्धों में, मुहावरों तथा अन्य भाषाओं के शब्द बहुत कम हो गये हैं, व्यङ्गय और हास्य के छींटे भी नहीं पड़ते; संस्कृतशब्दावली का प्रयोग बढ़ता चला जाता है फिर भी विषयवस्तु का प्रवाह शिथिल नहीं हो पाता, उसमें दुरूहता नहीं आती । वास्तव में उनके निबन्धों में विषयवस्तु का नहीं शैली का महत्व अधिक है। अपने निबन्धों द्वारा उन्होंने भाषा के स्वरूप की अस्थिरता, अव्यावहारिकता, ग्राम्यता और च्युतसंस्कृति को दूर कर ऐसी शैलियों का सूत्रपात किया जिससे वर्तमान युग में निबन्ध- शैली का चरम विकास सम्भव हो सका। बाबू श्यामसुन्दरदास ने, उर्दू, फारसी आदि भापात्रों के शब्दों- से अपनी शैली को रोचक बनाना उचित नहीं समझा और संस्कृत शब्दों की प्रधानता रख कर भी उसे दुर्बोध होने से बचाये रखा। उनकी शैली में तार्किकता है जिसके कारण विषयप्रतिपादन प्रभावो- त्पादक हो गया है। स्पष्टीकरण के लिए उन्होने व्यास शैली को अपनाया और निबन्ध-शैली में गम्भीरता का गहरा पुट दिया जो प्रायः अब तक नहीं आ पाया था । विचारात्मक निबन्धों का चरमोत्कर्ष प्राचार्य शुक्ल के निबन्धों में सम्पन्न हुआ है । उन्होंने स्वयं निबन्धविषयक कुछ मान्यताएँ निर्धारित की, जो हिन्दीजगत् में प्रायः सर्वमान्य स्वीकृत हो चुकी हैं । उनकी दृष्टि से शुद्ध विचारात्मक निबन्धो का चरमोत्कर्ष वहीं कहा जा सकता है जहाँ एक-एक पैराग्राफ में विचार दवा-दवा कर से गये हों और एक-एक वाक्य किसी सम्बद्ध विचारखण्ड को लिये हो । निबन्धों की शैली के विषय में उन्होंने लिखा है "खेद है, समास शैली पर ऐसे