हिन्दीनिबन्ध-शैली का विकास विचारात्मक निबन्ध लिखनेवाले जिनमें बहुत ही चुस्त भाषा के भीतर एक पूर्ण अर्थ-परम्परा कसी हो, दो-चार लेखक हमें न मिले ।" यह कहने की आवश्यकता नहीं कि शुक्ल जी के निबन्ध उनकी मान्यताओं- की कसौटी पर सवा सोलह आने खरे उतरते हैं और यह कहना अतिशयोक्ति पूर्ण न होगा कि इस दृष्टि से उनकी टक्कर का निबन्ध- लेखक हिन्दी ने अभी तक पैदा नहीं किया । विचारों से लबालब भरे हुए होने पर भी शुक्ल जी के निबन्धों में भावात्मकता के स्रोत स्थल- स्थल पर प्रवाहित होते हुए मिलेंगे। यह तथ्य उनके 'चिन्तामणि' के निवेदन से ही स्पष्ट है जिसके अनुसार "अपना रास्ता निकालती हुई बुद्धि जहाँ कहीं मार्मिक या भावाकर्षक स्थलों पर पहुंची है वहाँ हृदय थोड़ा बहुत रमता और अपनी प्रवृत्ति के अनुसार कुछ कहता गया है।" विषय और व्यक्तित्व प्रकाशन का ऐसा अपूर्व सामञ्जस्य हिन्दी- निबन्धो में खोजे न मिलेगा । कोई निबन्ध, कोई पैराग्राफ, कोई वाक्य ऐसा न होगा जिसमें शुक्ल जी की आत्मा विद्यमान न हो । पंक्ति- पंक्ति बोल-बोल कर कहती है, मैं शुक्ल जी की शैली-मुद्रा से अंकित हूँ। उनकी शैली समास शैली है, जिसमें व्यर्थ का एक भी शब्द न मिलेगा। भावमयता के साथ तार्किकता और पाण्डित्य के साथ स्वाभा- विकता का उसमें अनोखा योग है। व्याकरण की पूर्ण शुद्धता और विरामादि चिह्नों की यथास्थान स्थिति के प्रति वे बड़े सतर्क रहे हैं । और इस सबको हम एक शब्द में इस प्रकार कह सकते हैं कि वे यथा- र्थतः 'प्राचार्य हैं। इस प्रकार हिन्दी में विचारात्मक निबन्धो के लिए बाबू श्याम- सुन्दरदास को व्यास शैली और प्राचार्य शुक्ल की समास शैली आदर्श रूप में प्रतिष्ठित हुई हैं । हिन्दी के आधुनिक निबन्धकार प्रायः इनमें से ही किसी शैली का अनुसरण करते हैं किन्तु इधर अनेक BIG
पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/३७
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