सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सच्ची वीरता जारियो का लिबास लिया । देखो, एक छोटा सा मामूली आदमी योरप में जाकर रोता है कि हाय हमारे तीर्थ हमारे वास्ते खुले नहीं और पालिस्टन के राजा योरप के यात्रियों को दिक करते हैं । इस आँसू- भरी अपील को सुनकर सारा योरप उसके साथ रो उठा । यह आला दरजे की वीरता है। नौटिंगगेल के साये को बीमार लोग सब दवाइयों से उत्तम समझते थे। उसके दर्शनों ही से कितने ही बीमार अच्छे हो जाते थे । वह अाला दर्जे का सच्चा परन्द है जो बीमारों के सिरहाने खड़ा होकर दिन-रात गरीबों की निष्काम सेवा करता है और गंदे जख्मों को जरूरत के वक्त से चूसकर साफ करता है। लोगों के दिलों पर ऐसे प्रेम का राज्य अटल है। यह वीरता पर्दानशीन हिन्दुस्तानी औरत की तरह चाहे कभी दुनिया के सामने न आवे, इतिहास के वर्को के काले हर्मों में न आये, तो भी संसार ऐसे ही बल से जीता है । अपने मुख वीर पुरुष का दिल सबका दिल हो जाता है। उसका मन सबका मन हो जाता है। उसके ख्याल सबके ख्याल हो जाते हैं। सबके संकल्प उसके संकल्प हो जाते हैं। उसका बल सबका बल हो जाता है । वह सबका और सब उसके हो जाते हैं। वीरों के बनाने के कारखाने कायम नहीं हो सकते । वे तो देवदार के दरख्तों की तरह जीवन के अरण्य में खुद-ब-खुद पैदा होते हैं और बिना किसी के पानी दिये, बिना किसी के दूध पिलाये, बिना किसी के हाथ लगाये, तैयार होते हैं । दुनिया के मैदान में अचानक ही सामने आकर वे खड़े हो जाते हैं, उनका सारा जीवन अन्तर ही अन्तर होता है । बाहर तो जवाहिरात की खानों की ऊपरी जमीन की तरह कुछ भी दृष्टि में नहीं आता । वीर की जिन्दगी मुश्किल से कभी कभी बाहर नजर आती है । नहीं उसका स्वभाव छिपे रहने का है। ५६