पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/६९

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कन्या-दान हुए कलाधर पुरुष को नहीं देख सकती। उसकी कविता जो हमको मदमत्त करती है वह एक स्थूल चीज है और यही कारण है कि जो कलानिपुण जन प्रतिदिन अधिक से अधिक उस आध्यात्मिक अवस्था का अनुभव करता है वह अपनी एक बार अलापी हुई कविता को उस धुन से नहीं गाता जिससे वह अपने ताजे से ताजे दोहों और चौपाइयों का गान करता है । उसकी कविता के शब्द केवल इस वर्षा के दाने हैं । यह तो ऐसे कवि के शान्तरस की बात हुई । इस तरह के कवि का वीररस इसी शान्तरस के बादलों की टक्कर से पैदा हुई बिजली की गरज और चमक है। कवि को कविता में देखना तो साधारण काम है; परंतु अाँखवाले उसे कहीं और ही देखते हैं । कवि की कविता और उसका पालाप उसके दिल और गले से नहीं निकलते । वे तो संसार के ब्रह्म-केन्द्र से प्रालापित होते हैं । केवल उस बालाप करनेवाली अवस्था का नाम कवि है । फिर चाहे वह अवस्था हरे हरे बाँस की पोरी से, चाहे नारद की वीणा से, और चाहे सरस्वती के सितार से बह निकले । वही सच्चा कवि है जो दिव्य सौंदर्य के अनुभव में लीन हो जाय और लीन होने पर जिसकी जिह्वा और कण्ठ मारे खुशी के रुक जाय, रोमांच हो उठे, निजानन्द में मत्त होकर कभी रोने लगे और कभी हँसने / हर एक कला-निपुण पुरुष के चरणों में वह नयनों की गंगा सदा बहती है। क्या यह अानन्द हमको विधाता ने नहीं दिया ! क्या उसी नीर में हमारे लिए राम ने अमृत नहीं भरा ! अपना निश्चय तो यह है कि हर एक मनुष्य जन्म से ही किसी न किसी अद्भुत प्रम-कला से युक्त होता है । किसी विशेष कला में निपुण न होते हुए भी राम ने हर एक हृदय में प्रम-कला की कुञ्जी रख दी है । इस कुञ्जी के लगते ही प्रेम-कला की सम्पूर्ण सम्भूति अज्ञानियों और निरक्षरों को भी प्राप्त हो सकती है। ६६