पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/८४

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कन्या-दान फूटे गृहस्थाश्रम के खंडरात में कन्या के विवाह के दिन दर्दनाक होते हैं। नयनो की गंगा घर में बहती है । माता-पिता और भाई को दैवी आदेश होता है कि अब कन्यादान का दिन समोप है । अपने दिल को इस गंगाजल से शुद्ध कर लो । यज्ञ होनेवाला है । ऐसा न हो कि तुम्हारे मन के सङ्कल्प साधारण क्षुद्र जीवन के सङ्कल्पों से मिलकर मलिन हो जायें। ऐसा ही होता है । पुत्री-वियोग का दुःख, विवाह का मङ्गलाचार और नयनों की गंगा का स्नान इनके मन को एकाग्र कर देता है । माता, पिता भाई, बहन और सखियाँ भी पतिवरा कन्या के पोछे अात्मिक और ईश्वरी नभ में बिना डोर पतङ्गों की तरह उड़ने लगते हैं । 'आर्य-कन्या का विवाह हिन्दू-जीवन में एक अद्भुत आध्यात्मिक प्रभाव पैदा करनेवाला समय होता है, जिसे गहरी आँख से देखकर हमें सिर झुकाना चाहिए । विवाह के बाहरी शोरोगुल में शामिल होना हमारा काम नहीं । इन पवित्रात्माओं की उच्च अवस्था का अनुभव करके उनको अपने आदर्श-पालन में सहायता देना है ! धन्य हैं वे बन्धी जो उन दिनों अपने शरीरों को ब्रह्मार्पण कर देते हैं । धन्य हैं वे मित्र जो रजोगुणी हँसी को त्यागकर उस काल की महत्ता का अनुभव करके, अपने दिल को नहला धुलाकर, उस एक आर्यपुत्री की पवित्रता के चिंतन में खो देते हैं। सब मिल-जुल कर पात्रो, कन्या-दान का समय अब समीप है । केवल वही सम्बन्धी और वही सखियाँ जो इस आर्य- पुत्री में तन्मय हो रही हैं उस वेदी के अन्दर पा सकती हैं । जिन्होंने कन्यादान के आदर्श के माहात्म्य को जाना है वही यहाँ उपस्थित हो सकते हैं । ऐसे ही पवित्र भावों से भरे हुए महात्मा विवाहमण्डप में जमा हैं। अग्नि प्रज्वलित है । हवन की सामग्री से सत्त्वगुणी सुगंध निकल-निकल कर सबको शान्त और एकाग्र कर रही है । तारागण 58