सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पवित्रता- अनेक सूर्य अाकाश के महामण्डल में घूम रहे हैं, अनन्त ज्योति इधर उधर और हर जगह विखर रहे हैं। सफेद सूर्य, पीले सूर्य, नीले सूर्य और लाल सूर्य, किसी के प्रेम में अपने ब्रह्मकान्ति अपने घरों में दीपमाला कर रहे हैं । समस्त संसार का रोम-रोम अग्नियों की अग्नि से प्रज्वलित हो रहा है । परमाणु श्री ब्रह्मकान्ति से मनोहर रूपों में सजे हुए, ज्योति से लदे हुए, जगमग कर रहे हैं । परमाणु सूर्यरूप हो रहे हैं और सूर्य परमाणु- रूप है । सुन्दरता, सारी लज्जा को त्याग, घर वार छोड़, अनन्त पर्दी को फाड़ खुले मुँह दर्शन दे रही है । बालकों, नारियों और पुरुषों के मुखों की लाली और सफेदी झड़ रही है । गुलाब, सेब और अंगूर के नरम नरम और लाल लाल कपोलों से फूट फूट कर निकल रही है । प्रातःकाल के रूप में सिर पर नरम नरम और सफेद सफेद रुई का टोकरा उठाए हुए किस अन्दाज से वह पा रही है। सायंकाल होते अपने डुपट्टे के सुर्ख फूलो से फिर कुल संसार से होली खेलती हुई वह जा रही है । जल झरनों, चश्मों और नदी नालों में नाच रही है । हिमालय की बर्फी में लोट रही है। सजे धजे जंगल और रूखे सूखे बियावानों की सनसनाहट में लोट रही है । युवति कन्या के रूप में जवानी की सुगन्ध फैलाती हुई वही चल रही है। नरगिस (एक फूल) की आँख में किस भेद से छिपी हुई है कि प्रत्यक्ष दर्शन हो रहे