पृष्ठ:सरदार पूर्णसिंह अध्यापक के निबन्ध.djvu/८९

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पवित्रता 5 बालक की बोलचाल में, चेहरे में, क्या झाँक झाँक कर सबको देख रही है । खुला दरबार है । ज्योति का आनन्द नृत्य, सब दिशाओं में हो रहा है। मीठी वायु दर्शनानन्द से चूर हो मारे खुशी के लोटती पोटती, लड़खड़ाती, नाचती चली जा रही है । इस ब्रह्मकान्ति के जोश में बादल गरज रहे हैं । बिजली चमक रही है। अहाहा ! सारा संसार कृतार्थ हुआ । जाग उठा । हाथी चिंघाड़ रहे हैं। दौड़ रहे हैं । शेर गरज रहे हैं, कूद रहे हैं । मृग फलाँग रहे हैं । कोयल और पपीहे, बटेर, वैये (बया), कुमरी और चण्डूल नंगे हो नहा रहे हैं । दर्शन दोदार को पा रहे हैं । तीतर गा रहे हैं । मुर्ग अपनी छाती में आनन्द को पूरा भरकर कुक रहे हैं । ई, ई, ऊ, ऊ, कृ, कू, हू , हू में वेद- ध्वनि, ओ३म् का अालाप हो रहा है। पर्वत भी मारे अानन्द के हवा में उछल उछल नीले आकाश को फाँद रहे हैं । वद्रीनाथ, केदारनाथ, जमनोत्तरी, गङ्गोत्तरी, कञ्चनगंगा की चोटियाँ हँस रही हैं । वृक्ष उठ खड़े हुए हैं, इन सब की सन्ध्या हो चुकी है । था जिनकी खातिर नाच किया जब मूरत उनकी श्राएगी । कहीं आप गया कहीं नाच गया और तान कहीं लहराएगी ।। अर्थात् सबकी नमाज़ क़ज़ा हो गई । प्यारा नज़र आया । सबकी ईद है। ब्रह्मर्षि “सर्व खल्विदं ब्रह्म' पुकार उठा, चीख उठा, योगनिद्रा खुल गई । ब्रह्मकान्ति के आकर्षण ने दशवाँ द्वार फोड़कर प्राणो को अपनी ही गति फिर दे दी । मारे परमानन्द के हृदय बह गया, यहाँ गिर गया, वहाँ गिर गया । अत्यन्त ज्योति के चमत्कार से साधारण आँखें फूट गई । प्रेम के तूफान ने सिर उड़ा दिया। हवनकुण्ड से स्याह, नीले रङ्ग का ब्रह्म, कमलों से जड़ा हुअा ब्रह्म, मोतियों से सजा हुआ किसी ने कन्धों पर रख दिया, ब्रह्मयज्ञ हो चुका । मनुष्यजन्म सफल हुआ । जय ! जय !! जय !!! ॥ भक्त की जिह्वा बन्द हो गई । बाहु पसार जा मिला । कुछ न बोल सका । कुछ न बोला, ब्रह्मकान्ति में लीन हो ८६