पृष्ठ:सरस्वती १६.djvu/२९०

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संस्या ३ ] पगियर श्रीस्थामी चम्पानाथ जी। १६० घर नहीं। यह जगह बड़ी ही मयामक है। यहां सिद्धियों पार धनश्वर्य की विभूतियों के यशीमस कुछ भी साथ यस्तु प्राप्य महीं। नहीं होते। मगयान् पतजलि का उपदेश है कि कुछ लोगों का कथन है कि चम्पामाथी पहले स्थान्युपमिमा सदस्मयाऽमयं पुनरनिराप्रसवात् । पूढ़े थे। पापके केश श्वेत हे गये थे। जब आपने स्थामीजी केदय में यह लालसा उत्पन हुई अमरनाथ के अमर-तालाब में मिसको मात्र हत्यारा- कि इम्प्रेश्वर ही में हमारा प्रधान योगाधम पने। वालाय कहते हैं, जिसके पास पक्षी सक नहीं फट- प्रतः मापने संयत् १९३४ में इम्प्रेश्वर को ही अपना कसा मार जिसका जल यर्फ से एका रहता - मुस्य योगासम निश्चित किया । प्रापकी योग- मान किया तक प्रापकी काया बदल गई पीर पाप सिरियो घाइती थीं कि माप प्रसि-मार्ग में फैसें । अयान मालूम होने लगे। धे उघर मींचने की चार बार घेरा करती थी 1 यह का पादमी ऐसा भी कहते हैं कि चन्दनषाही उन्हीं का प्रभाय था कि काश्मीर के धर्तमान महा- की उपत्यका के गहन पन में एक अमरप है। राज सर श्रीप्रतापसिंह साहय बहादुरजी केदय उसके अळकरणों के स्पर्श से मनुप्य का शरीर कुछ में प्रापके दर्शन की इच्म उन्नत हुई। प्रतएष का कुछ हो जाता है। स्थामीमी इसी कूप के प्रभाव महाराज साहब अपने दोनों छोटे भाइयों को- से मघययस्क हो गये। प्रर्थात् रामा रामसिंह साहय पीर राजा ममरसिंह कुछ लोगों का विभ्यास है कि योगाभ्यास साहब को साथ लेकर संघत् १९३९ मै अम्म् से से ही स्यामीमी सोलह वर्ष के हो गये । परन्तु इन्द्रग्घर पहुंचे। पापने पार पार पदार्थों के सिया हम महीं कह सकते कि पापने यथार्थ में कौन सी इन्द्रेश्वर पर्यत के पासपास की सम्पूर्ण भूमि भी साधना की। मरते दम तक भापकी काम्ति २५ स्यामीजी के नाम कर दी। प्राथम में माना प्रकार . घर्ष के युया मनुप्य की काम्ति केही सहश रही। के फल और फूलों की पाटिका लगाई जाने का स्थामीजी कमी कमी सम्म के प्रासपास के प्रदेश मी पे दिया । फिर क्या था। पोड़े ही दिनों पहाड़ी पर मी, विशेषतः परमण्डल-तीर्थ में, योगा- में इन्द्रश्यर यथार्थ ही इन्वेश्वर बन गया । भ्यास करते थे। इस कारण प्रापके तपश्चरण धीरे धीरे स्थामीजी का येश बदल गया । जड़ी- की कीर्ति काश्मीर में प्रायः सर्वत्र फैल गई। घटी माना पद हो गया। बहुमूल्य घोगे पर प्रतपय काश्मीर-नरेश स्वर्गवासी महाराज धीरण- दशा प्रादि प्रापके शरीर की शोभा बढ़ाने सगे। धीरसिंहनी को प्रापके दर्शन की बड़ी प्रमिळापा कमस्लाव की पोस्तीने पाप पहनने लगे। सोने के बड़े प्रया से भापको, संपत् १९३२ में, अम्थ् रचित कटक-कुण्डलाय पाप धारण फरमे लगे। के धीगदाधर-मन्दिर में स्वामीजी के दर्शन का तरह तरह के पकान पाप भोग लगाने लगे। इन सीमाम्प मिला । सुनते हैं, महाराज मे अनेक पदार्थ योगसिरियों को तो देखिए। पापकी सेवा में समर्पण किये। किन्तु पापमे उम पदार्थों की तरफ़ देखा तक नहीं। क्योंकि योगिमन काश्मीर में मांस भक्षण का पड़ा प्रचार है। महेपा विद्वान् पण्डित भी मांस-मछली पाते हैं। "प्रपाबमूमुत्पान मार्य भण्टादशो नपेत् । यहाँ याः देय-कार्य तथा पितृकार्य के साथ न पोगी सराविमुकर मन् पोरनायवो मवेद" पदार्थो में भी मांस को ही प्रधान समझते। (a..) यह देख कर परोपकारमसि श्रीस्वामी चम्पा- - -