पृष्ठ:सरस्वती १६.djvu/३२०

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संम्पा] भाषा की परिवर्तनशीलता। H umIIIHARI भापा की परिवर्तनशीलता। इस भाष की संस्कृत में प्रकट करना चाहता है। संसद में यह "गांध" के लिए "प्राम" शप्प पाता SEर जीविष्ठ या प्रचलित भाषा में है पर "प्रन्दर" के लिए "मध्य" शब्द । इन दोनों EK सदा परिवर्तन होता रहता है। शब्दों को जोड़ने से "प्राममभ्य" ऐसा शम्ब पमता दो मापा एक हजार पर्प पहले है। ये मनुप्य जिन्हें शवों के ठीक उच्चारण करने - पाळी या लिभी आती थी यह की शिक्षा नहीं मिली या ओ शम्मों का उच्चारण पांच सौ वर्ष पहले की भापा से मिन्न है, जो पांच करमे में पड़े लापरवाह है, "प्राम" शप्प को सौ वर्ष पहले की भाषा है मह सा वर्षे पहले की "गाम" उधारण करेंगे। फिर यही "गाम" शम्म भापा से मिन्न है। पार कहाँ तक कहा जाय, दस वर्ष बिगड़ते पिगते "गाय" हो जायगा । इसी तरह पहले की भाषा पार पास कळ की मापा में भी अन्तर "मन्य" शम्द मी ऐसे लोगों के हाथ में पढ़ कर दिसलाई पाता है। हिन्दी मापा ही के सम्पन्ध में "मर" हो गया । "मद" से "माघ," "मा" से पाठक इस बात का अनुमय कर सकते हैं । घम्द की "मह" और अन्ततो-त्या "म" बन गया । यही "म" भाषा से जायसी की माषा, आयसी की मापा से हिन्दी में सप्तमी विमति का चिन्ह है। इस अवस्था सूर-तुलसी भादि की भाषा, सूर-तुलसी मादि की में "मैं" विमति की उत्पत्ति कैसे हुई, इस बात को भाषा से सरस्टूसाली की मापा, लल्लूलाल जी जानने के लिए साधारणतया उस मापा के बोलने की मापा से काबू हरिश्चन्द्र की मापा, हरिश्चन्द्र की पाली को कोई मावश्यकता नहीं पड़ती। उनके भाषा से प्राग कल की भापा में कितना अन्तर है। लिए "मैं सिर्फ एक षिमति का चिम्ह है, जिससे यदि चन्द की मापा से हम ग्राम कल की मापा “प्रदर" कामर्थ प्रकट होता है। दूसराशदलीजिए। का मुकाबला करें तो चन्द की भापा हमारे लिए यदि कोई मनुष्य "घड़ा पनामे पाला" इस माघ धेसी ही मालूम पड़ेगी जैसी प्रीक या ऐनिम । माषा की शप्प द्वारा प्रकट फरमा चाहे पार यदि उसे की इस परिवर्तनशीलता का दूसरा नाम मापा का इस भाव को प्रकट करने के लिए एक शम्प न मिले भीवन है । कोई भापा तमी तक जिन्दा रहती है तो यह लाचार होकर इस माय को "कुम्म" घड़ा जब तक उसमें परिषर्तम होता रहता है। जहां पार "कार" यमामेयाला-दन वो शादों को एकत्र परिपर्वम हामा बन्द हुमा कि भापा "रेर" (Denol) फरफे "कुम्मकार"-स समस्त-शप्प गरा प्रकट या मुर्वा हो गई । संस्कस मुर्दा मापा क्यों कही जाती करेगा । कुछ समय बाद प्रशुर उधारण से, "कार" है। इसी लिए कि उसमें परिवर्तन होमा बन्द हो के"" का लोप हो जाता है। तब "कुमार" पार + गया है। वह पाणिनि के सूत्रों से सकर दी गई है। "कुंमार" से "कुम्हार" शाम पनता है। पहले शप्द किसी भाषा में कमी कमी तो बात सय पार की तरह इसमें मी, षे स्टोग ओ "कुम्हार" शब्द । पात अधिक परिवर्तन होता रहता है पार कमी का प्रयोग करते है, इस बात को पिळगुल मूल कमी मनुत धीरे धीरे पार पहुत ही कम परिवर्तन जाते हैं कि धास्तय में मे समस्त-कप में दो शादों होता है। भाषण में परिवर्तन क्या होता है और किन का प्रयोग कर रहे हैं, जिनमें से एक "कम्म" पार नियमो पर होता है, इस मेस में इसी पर पिचार सय "कार"है। उमके लिए "प्रार" केवल एक 1. पिया जायगा। प्रत्यय मात्र है, जिसका अर्थ घे "करने पाला" ___मान सीजिए, कोई मनुप्य:"गौष के अन्दर"- समझते हैं।