पृष्ठ:सरस्वती १६.djvu/३२२

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संख्या ३] मापा की परिषरुमशीष्ठता। १९३ , हो गया । इस उदाहरण में हम देखते है कि दो मापा के शब्दों पर मुहाविरों में बहुत कुछ दो- मिन्न मिष व्यम्जनों का रथारण करने में जो परि- बदल हो जाता है। यदि एक जाति का सम्पत्य भम करना पड़ता था यह एक ही प्रकार के दो दूसरी जाति के साथ हो जाता है और यदि उनमें से भ्यम्जनौ का साथ साथ उम्पार करने से कम हो एक दूसरे की भाषा का व्यवहार करने लगती है तो गया। बाद को "सप्प" से "साप" होगया, जिससे यह मापा यास अधिक अपनर हो जाती है । यदि दो व्यम्मनों का उच्चारण करने में जो जोर लगाना हमारे लिए मैंगरेजी सीमने के लिए स्कूल पार पड़ता था यह कम हो गया । शब्दों की पिगाट कर कालेज न हो तो हम लोग अपने शासको की मापा उधारण करने की यह मानुपिक मवृत्ति यदि रोकी को इतमा अपना कर सालें कि यह एक विचित्र न जाय तो कुछ ही पीसो पाद भाषा इतनी पदल भाषा बम आय 1 हिन्दुस्तानी सन्तरी की यह बोली जाय कि पहली पीढ़ी के मनुष्यों के सामने षह मापा "हुकुम् र" (Who comes there) इस तरह की ससी शाय हो उसे विलकुल म समझ सकें। भाषा का प्रच्छा उदाहरण है। पालक प्रारम्भ में शयों का बाधा पशुख उधारय एक और प्रभुत बात, जो हम भाषा के पफ- करते हैं, और यदि उन्हें शुम रथारय करना दंश-सम्बन्ध में पाते हैं, "मिष्या साहस्य" है। न सिखाया जाय पार रथारण करने में उम्द पूरी संसत में "भु" धातु को सिर्फ पर्समाम, प्रामा, स्वतन्त्रता दे दी जाय तो ये देश की मापा को प्रमद्यतनमूत पार विधिनियम चार लकारों में कुछ ही दिनों में बहुत अधिक बदल दें। किन्तु घर "नु"का मागम होता है। पार इस धातु का रूप में पार स्कूल में उन्हें शुम उचारण करने की ऐसी फ्रम से इन चार लकारी में रणति, पातु, अश्य- शिक्षा दी जाती है जिससे सक्क मात फार महीं यात् पार स्यात् होता है । कुछ समय के प्रमासर रहता । प्रतएष शिक्षा एक ऐसी शक्ति है जो शप्प लोग इस बात को पिसकुल मूल गये कि "नु" का को अधिक पिगममे से रोकती है। पागम "भू" धासु में फेषल इन चार ही कारों में दूसरी बात जो भाषा को अपमए होने से होता है। "नु" का भागम दूसरे हफारी पार । रोकती है यह मनुप्यों की भाषश्यकता है। मनुष्य अन्य प्रस्पयो के साथ मी करने गे। इस तरह पाठी को इस बात की परम पावश्यकता है कि यह पार प्रारत में " " के स्थान पर "सुण = RY अपने पिधारी पार मायो को दूसरों को समझा स्वयं एक पातु बन गया । हिन्दी में "समना" मासु सके। प्रतएव उसके लिए यह पात भाषश्यक इसी पाली "सुख" का अपभ्रंश है। इसी प्रकार है कि यह सी दी भाषा पोले जैसी कि दूसरे "मी" का "किण", "म" का "माण"पार "पुभ" पोलते है। नहीं तो उसे दूसरा न समझ सकेगा। फा "दुस्मा" हा गया। मंगला का “कीनना" हिन्दी समाम भी अपनए भाषा के सर्पदा विषय रहती का “मानना" पार "मामा" क्रमशः इन्हों पाली वह भाषा सो परिमार्जित पार शिए लोगों रूपों का अपभ्रंश है। पाली पार मारत इस तरह प्रचलित नहीं है, समान में सम्य पार गारू के मिथ्या साहयों से भरी हुई है। इस मिथ्या- पा समझी जाती है । जब किसी मापा में साहिस्प साहय का उद्देश शम्द के मिन मित्र रूप में आता है सब उस मापा के प्रपम्रए होने का पार मापा के भिन्न भिन्न शब्दों में से मिप्रता तिना र नहीं रहता। किन्तु सादिस्य रहने पर भी को दूर करके तया मिन मिध रूपे पार शब्दों मी कभी ऐसी घटनागें हो जाती है जिससे उस में किसी प्रकार का साप पैदा करके, मापा को .