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सचाई की जड़

चाहिए; परन्तु लोभ और आगे बढ़ने की इच्चा सदा बनी रहने वाली वृत्तियां हैं। इसलिए आकस्मिक वस्तु से दूर रखने और मनुष्य को पैसा बटोरने की मशीन मानते हुए केवल इसी बात पर विचार करना चाहिए कि किस प्रकार के श्रम और किस तरह के लेन-देन के रोजगार से आदमी अधिक-से-अधिक धन एकत्र कर सकता है। इस तरह के विचारों के आधार पर व्यवहार की नीति निश्चित कर लेने के बाद चाहे जितनी पारस्परिक स्नेह-सहानुभूति से काम लेते हुए लोक-व्यवहार चलाया जाय।

यदि पारस्परिक स्नेह-सहानुभूति का बल लेन-देन के नियम जैसा ही होता तो ऊपर की दलील ठीक कही जा सकती थी। मनुष्य की भावना उसके अन्तर का बल है, लेन-देन का क़ायदा एक सांसारिक नियम है। अर्थात् दोनों एक प्रकार, एक वर्ग के नहीं है। यदि एक वस्तु किसी ओर जा रही हो और उस पर एक ओर