पृष्ठ:सर्वोदय Sarvodaya, by M. K. Gandhi.pdf/१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१०
सर्वोदय

सकते। इसी तरह यदि मनुष्य की भावना की उपेक्षा करके लौकिक शास्त्र के नियम बनाये जायँ तो वे उसके लिए बेकार हैं। फिर भी वर्तमान लौकिक व्यवहार के नियमों के रचयिता उक्त व्यायाम शिक्षक के ही ढंग पर चलते हैं। उनके हिसाब से मनुष्य, उसका शरीर केवल कल है और इसी धारणा के अनुसार वह नियम बनाते हैं। वे जानते हैं कि उसमें जीव है, फिर भी वे उसका विचार नहीं करते। इस प्रकार के नियम मनुष्य पर जिसमें जीव—रूह, आत्मा की प्रधानता है—कैसे लागू हो सकता है?

अर्थ-शास्त्र कोई शास्त्र नहीं है। जब-जब हड़तालें होती हैं तब-तब हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि वह बेकार है। उस वक्त मालिक कुछ और सोचते हैं और नौकर कुछ और। उस समय हम लेन-देन का एक भी नियम लागू नहीं कर सकते। लोग यह दिखाने के लिए खूब सिरपच्ची करते है कि नौकर और मालिक दोनों का स्वार्थ