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सर्वोदय

कही जा सकती कि मालिक और नौकर के बीच सदा ही मत-भेद रहना या न रहना चाहिए। अवस्था के अनुसार इस भाव में परिवर्तन हुआ करता है। जैसे अच्छा काम होने और पूरा दाम मिलने में तो दोनों का स्वार्थ है, परन्तु नफे के बटवारे की दृष्टि से देखने पर यह हो सकता है कि जहाँ एक का लाभ हो वहाँ दूसरे की हानि हो। नौकर को इतनी कम तनख्वाह देने में कि वह सुस्त और निरुत्साही रहे, मालिक का स्वार्थ नहीं सधता। इसी तरह कारखाना भली-भाँति न चल सकता हो तो भी ऊँची तनख्वाह मांगना नौकर के स्वार्थ का भी साधक नहीं है। जब मालिक के पास अपनी मशीन की मरम्मत कराने को भी पैसे न हों तब नौकर का ऊँची तनख्वाह मांगना स्पष्टतः अनुचित होगा।

इस तरह हम देखते हैं कि लेन-देन के नियम के आधार पर किसी शास्त्र की रचना नहीं की जा सकती। ईश्वरीय नियम ही ऐसा है कि धन