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सर्वोदय

के[१] सब पाठकों से यह आशा रखना कि वे इन पर विचार कर इनके अनुसार आचरण करेंगे शायद बहुत बड़ी अभिलाषा कही जाय। पर यदि थोड़े पाठक भी इनका अध्ययन कर इनके मार को ग्रहण करेंगे तो हम अपना परिश्रम सफल समभंगे। ऐसा न हो सके तो भी रस्किन के अन्तिम परिच्छेद के अनुसार हमने अपना जो फर्ज कर दिया उसमें फल का समावेश हो जाता है, इसलिए हमें तो सदा ही सन्तोष मानना उचित है।

रस्किन ने जो बाते अपने भाईयों—अंग्रेजों के लिए लिखी है वह अंग्रेजों के लिए यदि एक हिस्सा लागू होती है, तो भारत वासियों के लिए हज़ार हिस्से लागू होती है। हिन्दुस्तान में नए विचार फैल रहे है। आजकल


  1. इस नाम का गुजराती-अंग्रेजी साप्ताहिक पत्र महात्माजी ने दक्षिण अफ्रिका में रहते समय डरबन से निकाला था। अब भी यह निकल रहा है।