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पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/१०

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खानदेश व गुजरात के सूबेदार अब्दुल्ला के साथ भेजा । परन्तु जव इसका भी कुछ परिणाम न हुआ तो शाहजादा खुर्रम को भेजा। यह सन् १६२० की बात है । शाहजी अपने कुटुम्बियों की एक छोटी-सी सैनिक टुकड़ी लेकर इस युद्ध में शामिल हुए, तथा वड़ी वीरता प्रकट की। उनका नाम भी प्रसिद्ध हो गया। इस युद्ध में उनके श्वसुर सामन्त लक्खूजी जादोराय भी लड़ रहे थे । यद्यपि इस युद्ध में मलिक अम्बर की पराजय हुई, पर लक्खूजी जादोराय ने और शाहजी ने जो वीरता और शौर्य का प्रदर्शन किया, उससे मुगलों की सेना में मराठों की धाक बैठ गई। मुगल सेनापति ने तव मरहठों को तोड़-फोड़ कर अपने साथ मिलाना चाहा, जादोराय मुगलों से जा मिले। वहां उन्हें बड़ा रुतबा और जागीर मिली, पर शाहजी ने श्वसुर का साथ नहीं दिया । वे अपनी पुरानी सरकार के साथ ही रहे । १६२७ में जहांगीर मर गया और इसके बाद १६२८ में शाह- जहाँ वादशाह हुआ । उसने सेनापति खानजहाँ को दक्षिण से वापस बुला लिया, पर खानजहाँ से शाहजहाँ खुश न था। इसलिए वह भाग कर फिर दक्षिण आ गया और निजामशाह की शरण में पहुँचा । शाहजहाँ ने उसे पकड़ने को सेना भेजी, पर शाहजी भोंसले ने सब हिन्दु सरदारों को लेकर शाही सेना को खदेड़ दिया। इससे क्रुद्ध होकर शाहजहाँ ने खुद एक बड़ी सेना लेकर दक्षिण पर चढ़ाई की । अन्ततः खानजहाँ भाग खड़ा हुआ । इसी समय मलिक अम्बर की भी मृत्यु हो गई । तब शाहजी ने भी अपनी सेवाएं शाहजहाँ को अर्पित कर दीं। शाहजहाँ ने उन्हें छः हजारी जात का मनसव और पाँच हजार सवारों का सेनापति बना दिया। साथ ही बहुत-सी नई जागीरें भी दीं। परन्तु वह निजामशाह के शुभचिन्तक बने रहे। कुछ काल बाद निजामशाही के वजीर मलिक अम्बर के पुत्र फतहखाँ ने अपने बादशाह को कत्ल करके शाहजहाँ से सन्धि करली । तब शाहजी निजामशाही छोड़कर बीजापुर दरबार की सेवा में आ गए।