पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/१०५

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कुंवर रामसिंह ने आगे आकर शिवाजी को प्रणाम किया। फिर हँसते हुए उनसे कुशल-मङ्गल पूछा । यह भी कहा कि उनके पिता महाराज जयसिंह ने लिखा है कि आगरे में आपकी सव सुविधाओं और सुरक्षा का ध्यान रखू । अब आप जैसी आज्ञा देंगे, वही मैं करूंगा।" कुमार के उदार और निष्कपट व्यवहार को देख शिवाजी सन्तुष्ट हुए। उन्होंने कुमार का आलिंगन करके कहा-"मेरे आगरा चलने के सम्बन्ध में तुम्हारे क्या विचार हैं तथा बादशाह ने कैसा प्रवन्ध किया है।" "आपको किसी प्रकार की आशंका करने की आवश्यकता नहीं । मैं आपका सेवक अपने दो हजार राठौरों के साथ रकाव के साथ हूँ। परन्तु आश्चर्य है कि मुखलिसखां अभी नहीं आए।" "मुखलिसखां कौन है ?" "शाही मनसबदार है।" "उसका मनसब कितना है ?" "डेढ़ हजारी जात का।" "क्या कहा, डेढ़ हजारी जात का?" “जी हां, मुखलिसखाँ यूं वादशाह के मुंहलगे हैं।" "तो क्या आगरे में हमारा स्वागत ठीक हो रहा है ?" "महाराज, किसी बात की चिन्ता न करें। मैं आपकी सेवा में उपस्थित ही हूँ।" इसी समय मुखलिसखां भी आए। उनके साथ केवल दो सवार थे। शिवाजी ने इस सरदार की ओर देखकर कहा--"शक्ल से तो तबलची मालूम होता है। उसके दोनों साथी शायद महज सवार हैं।" "जी हां। "तो बुलाओ उसे, देखू क्या सुर्सी लाता है।" मुखलिसखाँ ने जरा अकड़ कर शिवाजी को यूं ही सलाम किया 6 १०३