पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/१०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चाहता है, और उसने तुम्हारी वहादुरी और दयानतदारी पर भरोसा करके उस चढ़ाई में सम्मिलित करने तुम्हें बुलाया है।" "बस, तो समझिए वादशाह आपकी जेरेकमान एक बड़ी फौज फारस की ओर भेजने का कस्द कर चुका है। आप जैसी कि आशा है, यदि इस मुहिम में कामयाब होंगे, तो आपकी शोहरत और इज्जत दारेशाही में उसी रुतबे को पहुँच जाएगी जिस पर मेरे पिता व महाराज जसवन्तसिंह जी की है।" "खैर, तो तुम इस मनहूस भांड को मेरी आँखों से दूर आगरे रवाना करदो और मेरे हमरकाब डेरे तक चलो।" रामसिंह ने हँसते हुए डेढ़ हजारी मनसबदार मुखलिसखाँ से कहा-"खाँ साहब, मैं राजा साहब के हमरकाव आगरे पा रहा हूँ। आप जल्दी आगरे तशरीफ ले जाकर यह खवर जहाँपनाह को पहुंचा दीजिए।" "लेकिन यह तो कोई उजड्ड भूमिया मालूम होता है । क्या इस दहकानी को आप बादशाह सलामत के रूबरू ले जाएंगे।" "इस मसले पर बाद में गौर कर लिया जायगा । खाँ साहब, आप आगे चलकर इत्तलाह कर दीजिए।" "या वहशत, क्या खौफनाक आखें हैं जैसे इन्सान को जिन्दा निगल जाएँगी।" रामसिंह ने हँसकर कहा-"कुछ डर नहीं है खाँ साहब, आप जल्द कूच कीजिए । घड़ी भर में हम लोग भी रवाना होते हैं।" खान ने और उज्र नहीं किया। उछलकर घोड़े पर चढ़ा और घोड़ा आगरे की ओर गर्द उड़ाता दौड़ चला।