फटकार कर आए, पर रोग अच्छा न हुआ । अन्ततः एक निराला हकीम आया। हकीम की पालकी बड़ी शानदार थी। उसके कहार भी जर्क- बर्क थे। हकीम की सफेद डाढ़ी नाभि तक लटक रही थी, किन्तु वह कद में ठिगना था । उसके एक हाथ में तस्वीर थी। उसने फाटक पर आकर सिद्दी फौलादखाँ से कहा- "अय नेकवस्त, सुना है कोई काफिर इस घर में बीमार है । आराम होने पर वह सोने से हकीम को तोल देगा। काफिर को आराम करना शरम के खिलाफ है, लेकिन जिस्म के वजन के बराबर सोना भी कुछ मायने रखता है। मसलन ये चार अशर्फियाँ हैं। उन्हें तुम अपनी हथेली पर रखकर देखो और इनके असर से तुम्हारे दिल में फायदा उठाने के खयालात पैदा हों तो उस काफिर के पास जाकर हमारी खूब बढ़ा-चढ़ा कर तारीफ करो और उसे हमारे इलाज के लिए रजामन्द करो। बस, तुम यह खबर लाओगे तो यह मेरी मुट्ठी की चार अशर्फियां तुम्हारी हथेली पर और पहुंच जाएंगी।" आठ अशर्फियाँ देखकर फौलादखाँ पानी-पानी हो गया। उसने कहा-"हकीम साहेव, ये अशफियां भी मेरी हथेली पर रखिए और शौक से भीतर जाकर ऐसा इलाज कीजिए कि मर्ज रहे न मरीज ।" हकीम साहेब हँस दिए-"भाई फौलादखां, जिन्दादिल आदमी हो । लो ये वाकूती गोलियाँ । आज रात इनकी बहार देखना।" इतना कह कर शीशी से निकालकर गोलियाँ और अशफियाँ हकीम साहेब ने फौलादखाँ की हथेली पर रख दीं। फिर कहा-"अमा, इस काफिर के पास इतना सोना है भी या यूंही बेपर की उड़ाता है।" "है तो मालदार रईस । खुले दिल से खर्च करता है।" "तव तो उम्मीद है मेरी आठ अफियाँ मिट्टी में न जाएँगी।" यह कह कर हकीम साहेब भीतर गए । शिवाजी को उन्होंने घर-घूर कर देखा। फिर कहा-"काफिर' का इलाज मुसलमान पर लाजिम नहीं है । मगर, ए हिन्दू सरदार ! क्या -१:२०
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