पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/१२३

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। सचमुच तेरे पास इतना सोना है जितना तूने देने का वायदा किया है ?" शिवाजी हकीम की गुस्ताखी से एकदम नाराज हो उठे । उन्होंने कहा-"सोना है, मगर मैं हिन्दू हूँ, मुसलमान की दवा नहीं खाऊँगा। निकलो बाहर ।" लेकिन हकीम साहेब ने शिवाजी की ओर देखकर कहा-'अय नादान सरदार, मुझ पर लाज़िम है कि मैं तेरी जान बचाऊँ।" इतना कहकर पास बैठकर उन्होंने शिवाजी की नाड़ी पकड़ ली। शिवाजी कुछ देर चुप रहे । नाड़ी देखकर हकीम ने कहा-“सर- दार, तुझे तकलीफ क्या है ?" "सिर में दर्द रहता है । बदन जलता है।" "यह तकलीफ बाजवक्त गुस्से की ज्यादती से पैदा होती है, बाजवक्त दिल की खराबी से। कभी ऐसा भी होता है कि वतन की याद से दिल कीध डकनें बढ़ जाती हैं जिनका दिमाग पर भी असर होता है ।" इतना कहकर उन्होंने दूसरी नब्ज पकड़ी और दिल पर हाथ रखा। शिवाजी ने सोचा कि यह कम्बख्त क्या मेरे मन की बात समझ गया है। उन्होंने गौर से हकीम साहेब के चेहरे को देखा। फिर कहा- "हकीम साहेब, ऐसा दीखता है कि मैं इस बीमारी में मर जाऊँगा।" इतना कहकर उन्होंने झटका देकर हाथ छुड़ा लिया। हकीम साहेब डाढ़ी पर हाथ फेरते हुए बोले-“अला-कला-उला- व लाम नून वे। हमारी पुश्तैनी किताब में इस मर्ज का हाल दर्ज है। दिल के पास कुल कुला तुसा या काता हत्तारा रग होती है। उसकी फस्द खोलना होगा।" "क्या दूसरा कोई इलाज नहीं है ?" "बेंत से पीटने से भी किसी कदर आराम हो जाता है। दुश्मन की कैद से निकल भागने की जो कैदी तरकीब सोचा करते हैं, उन्हें भी १२१