पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/१३३

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भी हो चुकी। उनमें सब युद्ध सज्जाएं तैयार हैं। अपने दुर्गों में अब केवल सिंहगढ़ और पन्हाला दुर्ग ही रह गया है।" "धन्य मोरेश्वर, दो ही मास में वे भी अपने हो जाएंगे। चिन्ता न करो। मैंने उस समय जो जयसिंह से युद्ध नहीं किया, अच्छा ही किया। उस समय जयसिंह के पास ८०,००० सेना थी। युद्ध होता तो बड़ी क्षति होती तथा परिणाम अनिश्चित था। ठीक हुआ काँटे से काँटा निकला । शत्रुदल विखर गया। अपना दल अक्षत रहा । राज भी कम न हुआ, अव देखो भवानी मुझ दास से क्या कराती है।" "महाराज, तीनों शाहियां खत्म हुई रखी हैं । अव पधारिए, राजवेश धारण कीजिए।" -- ४६ दक्षिण लौटने पर आगरा से दक्षिण लौटने पर शिवाजी ने देखा कि दक्षिणी भारत की सारी राजनैतिक परिस्थिति ही बदल गई है और मराठों के विरुद्ध जयसिंह ने पहले जो सफलताएं प्राप्त की थीं, वे अब सम्भव नहीं हैं । सितम्बर सन् १६६६ में आगरे की कैद से छूटकर शिवाजी दक्षिण पहुंचे और उसके ४ महीने बाद ही जयसिंह को वापस दिल्ली बुला लिया गया। महाराज जयसिंह दक्षिण की सूबेदारी का शासन-भार शाहजादा मुअज्जम को सौंपकर खिन्न-हृदय दिल्ली लौटा । परन्तु वृद्ध महाराज जसवन्तसिंह जिनका सारा जीवन कठिन संघर्ष में व्यतीत हुआ था अब घरेलू चिन्ताओं से व्यथित, निराश और जर्जरित हो चुके थे; तथा बीजापुर की पिछली लड़ाई में विफल होने के कारण बादशाह ने जिनका तिरस्कार किया था, वे वृद्ध व्यान मिर्जा राजा जयसिंह जीवित अपनी जन्मभूमि तक नहीं पहुंचे, मार्ग ही में २८ अगस्त को बुरहानपुर में उनका शरीरांत हो गया। ,