. आलसी, विलासी और शक्तिहीन मुअज्जम से शिवाजी को किसी प्रकार का भय न था। उसके साथ जोधपुर के महाराज जसवन्त- सिंह भी शिवाजी के भीतर ही भीतर मित्र थे। उधर रुहेला सेनापति दिलेरखां वृद्धावस्था में बहुत घमण्डी हो गया था । शाहजादा मुअज्जम के आदेशों की वह तनिक भी परवाह न करता था और महाराज जसवन्तसिंह का खुलेआम अपमान करता था। इस प्रकार मुगलों का यह दक्षिणी पड़ाव आपसी ईर्ष्या-द्वष और गृहयुद्ध का अखाड़ा बना हुआ था । यही कारण था कि आगरे से लौटने के बाद तीन साल तक शिवाजी के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं हुई। शिवाजी भी अपनी दूर- दर्शिता के कारण झगड़े-टंटे के सब अवसरों को टालते रहे। और अपनी पूरी शक्ति भविष्य की तैयारियों में लगा दी। उन्होंने अपने राज्य के शासन-प्रबन्ध को सुव्यवस्थित किया, किलों की मरम्मत की, आवश्यक युद्ध सामग्री एकत्र की और पश्चिमी तट पर बीजापुर राज्य और जंजीरा के सिद्धियों को पराजित किया और अपनी सीमाएँ सुदृढ़ की। बीच-बीच में वे महाराज जसवन्तसिंह की लल्ली-पत्ती करते रहे और निरन्तर यही कहते रहे कि मेरे बुजुर्ग मिर्जा राजा मर चुके हैं, अब आप ही मेरे एकमात्र हितैषी हैं । मुगल दरबार से मुझे क्षमा करा दीजिए तो मैं सब प्रकार की शाही सेवा करने को तैयार हूँ। शिवाजी की इस विनय से सन्तुष्ट होकर मुअज्जम और जसवन्तसिंह ने शिवाजी के लिए औरंगजेब से सिफारिश की। अन्त में सन् १६६८ के प्रारम्भ में एक संधि हुई जो दो वर्षों तक कायम रही। इस संधि के अनुसार औरंगजेब ने शिवाजी को राजा कहना स्वीकार कर लिया और मराठों द्वारा समर्पित किलों में से चाकण का किला उन्हें लौटा दिया। इसी संधि के अनुसार शिवाजी ने नीराजी रावजी की अधीनता में एक मराठा सेना औरंगाबाद भेज दी। शंभुजी को पंचहजारी मनसब दे दिया गया और मनसब की जागीरें बरार में दे दी गई। परन्तु, हकी- १३२
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