पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/१४५

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यह ठीक है कि इस्लाम और हिन्दूधर्म एक-दूसरे के विरोधी भाव के प्रदर्शक हैं । वे असल में चित्र भरने के लिए केवल दो जुदा-जुदा रंग हैं । यदि यह मस्जिद है, तो वहां उसी की याद करने के लिए दुआ की जाती है । यदि वह मन्दिर है, तो उसमें, उसी की तलाश में घण्टा बजाया जाता है । किसी भी मनुष्य के धार्मिक विश्वास या धार्मिक क्रिया-कलाप के साथ दुश्मनी करना पवित्र पुस्तक के शब्दों को बदलने के समान है। "पूरे न्याय की दृष्टि से देखा जाय, तो जजिया उचित नहीं है। राजनीतिक दृष्टि से केवल उसी दशा में जजिया को माना जा सकता है, जब सुन्दर स्त्रियाँ आभूषणों से अलंकृत होकर राज्य के एक भाग से दूसरे भाग में जा सकें । परन्तु आज जब कि शहर तक लूटे जा रहे हैं, तव खुली आबादी का क्या कहना है ? जजिया केवल अन्यायपूर्ण ही नहीं है, यह भारत में एक नई वस्तु है, और समय के विरुद्ध है । “यदि आप समझते हों कि हिन्दू प्रजा को दबाना और डराना धर्म है, तो आपको चाहिए कि आप पहले राणा राजसिंह से जजिया कर वसूल करें क्योंकि वह हिन्दुओं का शिरोमरिण है । उसके बाद मुझसे भी जजिया लेना आपको कठिन न होगा, क्योंकि मैं आपका सेवक हूँ। परन्तु और मक्खियों को सताने में कोई बहादुरी नहीं है । "मैं आपके नौकरों की अद्भुत स्वामिभक्ति पर आश्चर्यान्वित हूँ कि वह आपको राज्य की ठीक-ठीक दशा नहीं बतलाते और आग को फूस से ढंकना चाहते हैं। मैं चाहता हूँ कि आपके बड़प्पन का सूर्य आकाश में चिरकाल तक चमकता रहे।" और भी कई हिन्दू राजाओं ने औरंगजेब की आँखें खोलने की चेष्टा की परन्तु कुछ सफलता न मिली। जजिया लगाने का हुक्म लेकर हरकारे चारों ओर फैल गए। गरीब प्रजा के लिए तो मानो मृत्यु का सन्देश आ गया । सूबे के शासक अधिक-से-अधिक जजिया उगाहने में १४३