पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/१८

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अभी से इतना उद्दण्ड हो गया। दादा के पास शिकायतें आई हैं। तू दिन-दिन भर रहता कहां है, बोल ?" "माता, मैं तो तुम्हारी गोद में ही रहता हूँ।" "भूठा कहीं का । मैंने तुझे इतनी कथा भागवत सुनाई सो ?" "मो वह व्यर्थ नहीं जायगी, माता । आप ही तो मेरी आदि "अरे, मैंने तो तुझमे शंभा से भी अधिक आशा की थी। तेरे पिता ने तो ग्यारह बरस तेरा मुंह भी नहीं देखा, मैंने ही तुझे आंख का तारा बना कर रखा।" "तो माता, क्या पिताजी ने मेरे विषय में कुछ लिखा है ?" "अरे, तूने उनकी प्रतिष्ठा में बट्टा लगा दिया । उस दिन तूने दरबार में जाकर गाह को मलाम नहीं किया। सलाम करता तो तुझे शाही स्तबा मिलता। बादशाह ने तेरी तारीफ सुनकर ही बुलाया था। बेचारे मुरारजी पन्त को कितना लजित होना पड़ा, यह तो देख ।" "माता, जिस दिन मैं पिता की प्रतिष्ठा को बट्टा लगाऊंगा, उसी दिन प्राण त्याग दूंगा । पर शाह को सलाम तो मैं नहीं करूंगा।" "अरे वे हमारे मालिक यह भी तो देख।" "वे गौ-ब्राह्मण के शत्रु हैं, और मैं उनका रक्षक, मैं तो यही जानता हूँ।" "लेकिन शिव्या, तेरे वाबा मालोजी भोंसले और उनके भाई बिठोजी एक साधारण किलेदार थे। पर थे बड़े वीर । अब तुम्हारे पिता के बाहुबल से आज हम इतने बड़े जागीरदार हुए । पर सब शाही कृपा से । निजामशाह ने उन्हें बारह हजारी का मनसब और राजा की उपाधि दी, तथा पूना और सूमा के जिले दिए।" “यह तो मैं जानता हूँ, मां।"