पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/१९

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"तो देख, तेरे दादा और पिता भी तो हिन्दू हैं । धर्म मे डिगे तो नहीं, फिर भी समय देख कर काम करना पड़ता है । पहाड़ में मिर मारने से पहाड़ नहीं टूटता, सिर ही फूटता है।" "परन्तु मां, धर्म भी एक वस्तु है । आप ही ने मुझे धर्म की शिक्षा दी है।" "तो अब क्या मैं तुझे धर्म से विमुख होने को कहती हूँ ?" "पर हमारा धर्म तो गौ-ब्राह्मण की रक्षा करना है।" "तू वड़ा जिद्दी है शिव्वा, यथागक्ति गौ-ब्राह्मण की भी रक्षा की जायगी। पर राजधर्म का भी तो पालन होना चाहिए।" "तो हम प्रजापीड़कों की सहायता करके राजधर्म कैसे पालन करेंगे ?" 'तो तू क्या समझना है, तू आदिलगाही को ध्वंस कर देगा।" "माता, नुम क्या समझती हो ?" "मैं तो वेटा, यही समझती हूँ कि तू जिस मार्ग पर चल रहा है, उससे अपना पुश्तैनी वैभव जायगा।" "माता, उनर और दक्षिण की शादियों में यही अन्तर है । उत्तर की मुगलशाही विदेशी तुर्क-तातार-पठानों के बल पर पनपी, पर यहां दक्षिण में ये आदिलशाही और कुतुबशाहियां हम मराठों के बल पर ही पनप रही हैं।" "अरे तो अकेला तू क्या कर लेगा ? जब भगवान ही की यह इच्छा है कि म्लेच्छ भारत पर राज्य करें, तो तू क्या करेगा।" "तो माता, तुम समझती हो भगवान विट्ठल म्लेच्छों के सहायक हैं ?" “हे ही । ऐसा न होता तो हम हारते क्यों ? मरहठे क्या मुसल- मानों से वीरता में कम हैं ?" "कोरी वीरता से क्या होता है। हमारी वीरता में दासता का जो पुट लगा है ?" स.च.२