पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/३९

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सारी यवन-सेना में गड़बड़ी फैल गई। यवन सेनापति ने पीछे लौटने की आज्ञा दी, परन्तु अरे ! यहां तानाजी की सेना मुस्तैदी से खड़ी तीर फेंक रही थी। अब एक और भारी विपत्ति आई। ऊपर से अगणित वारणों की वर्षा होने लगी, और भारी-मारी पत्थर लुढ़कने लगे। घोड़े, खच्चर, सिपाही सभी चकनाचूर होने लगे। भयानक चीत्कार मच गया। मुहाने पर दो-चार सिपाही आकर युद्ध करके कट गिरते थे। लाशों का ढेर हो रहा था। यवन-सेनापति ने देखा, प्राण बचने का कोई मार्ग नहीं। सहसों सिपाही मर चुके थे। जो थे, वे क्षण-क्षण पर मर रहे थे। उसने तानाजी से कहला भेजा, "खजाना ले लीजिए, और हमारी जान बख्श दीजिए।" तानाजी ने हंसकर कहा-"जान बख्श दी जायगी, पर खजाना, हथियार और घोड़े तीनों चीजें देनी होंगी।" विवश यही किया गया। एक-एक मुगल सिपाही आता, घोड़ा और हथियार रखकर एक ओर चल देता। ग्रामवासियों ने मार बन्द कर दी थी। बहुत कम यवन-सैनिक प्राण बचा सके । घोड़े, शस्त्र और खजाना तानाजी ने कब्जे में कर लिया। सूर्य की लाल-लाल किरणें पूर्व में उदय हुई। तानाजी ने देखा, दूर से गर्द का पर्वत उड़ा आता है। उन्होंने सभी ग्रामवासियों को एकत्र करके कहा-"सावधान रहो, महाराज आ रहे हैं।" X X x महाराज ने घोड़े से उतरकर तानाजी को गले से लगा लिया। ग्रामवासियों ने महाराज की पूजा की, और लूटा हुआ सभी माल लेकर शिवाजी अपने किले में लौटे। इस प्रकार संयोग, प्रारब्ध और उद्योग ३७