पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/४२

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"खुदाबन्द, इनके वालिद बुजुर्गवार मालोजी भोंसला को जव असे तक औलाद न हुई तो उनकी बीवी दीपावाई ने बहुत दान-पुण्य किया और मालोजी ने शाह शरीफ की ज्यारत भी की। उन्हीं की दुआ से उनको दो बेटे हुए जिनके नाम शाहजी व शरीफजी रखे गए।" "खैर, तो यह खानदान शाह साहब की दुआ से चला है।" “जी हां खुदावन्द ! खुद शाह साहब भी एक फकीर आदमी हैं।" "तो यह फकीर हमारे हुजूर से क्या मांगता है ?" "महज़ कैद से रिहाई।" "लेकिन उनकी शाही खिदमात तो कुछ हैं नहीं ?" "बजा इर्शाद है साहिबे आलम, हकीकत यह है कि उन्होंने अपने पुराने मालिक निजामशाह का नमक अदा कर दिया। उनके लिए छः साल तक निहायत वफादारी से लड़े और अजीम सल्तनत मुगलिया से जबर्दस्त टक्करें लीं। यह उनकी बहादुरी, जांनिसारी और बफादारी के सुबूत हैं । अगर हुजूर पसन्द फर्माएँ तो ये सब औसाफ हुजूर के कदमों में हाजिर हैं।" "लेकिन हमने सुना है कि उसने निजामशाही को छोड़कर मुगलों की जागीरदारी कुबूल की थी। लेकिन बाद में बीजापुर आकर हम पर हमला किया। अलावा अजी शिवाजी भी बीजापुर से बगावत कर रहा है।" "पनाह आलम, शिवाजी न बीजापुर के नौकर हैं, न जागीरदार। शाह ने उनकी हर तरह दिलजोई की, मगर उन्होंने शाही खिदमत पसन्द नहीं की। रही शाहजी की बात, वह अर्ज करता हूँ कि जब निजामशाही डूब रही थी, तब उन्होंने मुगलों की जेर हुकूमत न आकर अपनी जागीर बचाई। और बाद में भी निजामशाह ने ही उनकी जागीर में दस्तन्दराजी की। फिर भी वे बीजापुर से मदद लेकर अपने पुराने मालिक ४०