पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/६४

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. "ऐसा नराधम मैं नहीं हूँ। आप जैसे नर-रल का जिसने साथ नहीं दिया, वह पुरुष कैसा?" "धन्य हैं आप कृष्णजी, आपने सब ब्राह्मणों की मर्यादा रख ली। अब गुरु-दक्षिणा मांगिए।" "आप महानुभाव हैं। देश के करोड़ों जनों पर आपकी नजर है । मुझे तो यदि हिवरा ग्राम ही मिल जाता तो बहुत था । परन्तु मैं मांग नहीं रहा । एक बात कही।" "मांगिए तो बेजा क्या है ? तो सुनिए, आप मेरा काम करें या न करें हिवरा ग्राम आपका हो चुका । चलते समय मैं आपको ५००० हूण, मोतियों की माला, सोने का कण्ठा, स्वर्ण पदक, और एक अच्छा अरबी घोड़ा भेंट करूंगा । यह भेंट बीजापुर राज्य के दीवान कृपणजी की होगी।" "इतनी बड़ी भेंट ?" "मैं बहुत डर गया हूँ। इसी से अफजलखाँ के दीवान को इतनी भारी भेंट दे रहा हूँ।" “यह गोरखधन्धा मेरी समझ में नहीं आया। दरवार में आपने बीजापुर की प्राचीनता दीनतापूर्वक स्वीकार की और इस समय ऐसी बातें कहीं कि मेरा अचल मन भी डिग गया। अब फिर कहते हैं कि डर गया हूँ।" "कृष्णजी, हर बात का प्रयोजन होता है । आप खाँ साहब को समझाइए कि शिवाजी वहुत डर गया है और उसे सब भाँति आधी- नता स्वीकार है। हर तरह विश्वास दिलाकर उसे प्रतापगढ़ के नीचे तक ससैन्य ले आइए । और यहीं मुझसे मिलाइए।" "आपका मन्त्र गूढ़ है । परन्तु आज से मैं आपका सेवक हुआ । आपके अभिप्राय से मुझे कुछ प्रयोजन नहीं है । मैं आपकी आज्ञापालन करूंगा।"