पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/६८

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जाने के मुख्य मार्ग पर था। उत्तर में सावित्री नदी और पश्चिम में कामना नदी दुर्ग की खाई का काम दे रही थी। पश्चिम की ओर एक विस्तृत पहाड़ी मैदान मीलों तक चला गया था जो कोंकरण से मिल गया था। उसका एक सिरा साठ मील तक बल खाता हुआ समुद्र तट तक जा पहुंचा था। प्रतापगढ़ एक दुर्गन पर्वत श्रंग पर पश्चिम में उत्तरी छोर पर था। किला अत्यन्त मजबूत था । उसके चारों ओर दुहरी पक्की चहारदीवारी थी। ज्यों ही शिवाजी को अफजलखां के आने की सूचना मिली, वे राजगढ़ के निवास को छोड़ कर प्रतापगढ़ में आ गए थे। और यहीं वे उस खान से मोर्चा लेना चाहते थे । यहाँ से वाह में पड़ी हुई अफजलखाँ की सेना दीख पड़ती थी। कृष्णजी भास्कर को विदा करके शिवाजी. एकदम कार्यव्यस्त हो गए थे। इस समय वे एक बड़ी ही कठिन जोखिमपूर्ण योजना मन ही मन बना चुके थे। उन्होंने रात भर जागकर भवानी की उपासना की । प्रभात में मन्त्रियों को बुलाकर मन्त्रणा की। उन्होंने कहा- "यदि मैं मार डाला जाऊं तो नेताजी पालकर पेगवा की हैसियत से राज्य का भार सम्हालेंगे। पुत्र शम्भाजी राज्य का उत्तराधिकारी रहेगा।" इस प्रकार सब प्रकार राज-व्यवस्था से निश्चिन्त हो उन्होंने अफजलखां से भेंट करने की तैयारियां की। सिर पर फौलाद का सिरस्त्राण पहना, ऊपर पगड़ी बांध ली, सारे शरीर पर जंजीरी कवच धारण किया, ऊपर सुनहरी काम का अंगरखा पहना, बाएं हाथ की चारों उंगलियों में तीव्र व्याघ्र नख नाम का फौलादी अस्त्र और दाहिनी आस्तीन में बिछुआ छिपा लिया। इस प्रकार आत्मरक्षा और आक्रमरण के लिए हर तरह तैयार होकर तथा सेना की गुप्त व्यवस्याएं करके तथा अन्य संकेत सेनानायकों को देकर शिवाजी अपने विश्वस्त वीर साथियों सहित खान से भेंट करने को प्रतापगढ़ दुर्ग से चले । चलती बार उन्होंने माता जीजावाई की