पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/६९

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चरण धूलि ली और आशीर्वाद मांगा। उन्होंने कहा-"पुत्र, यह मत भूलना कि यह दैत्य मेरे पुत्र का घाती है, भाई शम्माजी की मृत्यु का बदला लेना।" इस समय शिवाजी के अगल-बगल जीवाजी महता और शम्भूजी कावजी दो मराठे थे जिनकी जोड़ का तलवार का धनी उस काल महाराष्ट्र में न था। दुश्मन की मुलाकात अभी तीसरा पहर था । मूरज की किरणें निरछी हो गई थीं। अफजलखां ने एक हजार सिपाहियों सहित ठाठ-बाट मे दरबार के लिए प्रस्थान किया । वह पालकी में सवार था । मैयद बन्दा पालकी के साथ- साथ चल रहा था। दूनरी ओर कृष्णाजी भास्कर थे। जब पालकी शामियाने के सामने पहुंची तो कृप्रणजी ने कहा- “यदि शिवाजी को घोखा देकर कब्जे में करना है, तो इतनी बड़ी फौज साथ ले जाना ठीक नहीं है । उसे यहीं छिपा देना चाहिए।" अफजलखां ने घमण्ड में आकर स्वीकार कर लिया। सेना पीछे छोड़ दी गई, पर तैयार रहने का हुक्म दे दिया गया। उसे अपने वाहु- बल और आदमी के कद के वरावर लम्बी तलवार का वहुत भरोसा था । फिर संबद वन्दा परछाई की भाँति नंगी तलवार लिए उसके पास था। शामियाना बड़े ठाठ से सजाया गया था। बड़े-बड़े कीमती कालीन और कारचोबी के मसनद वहां करीने से लगे थे । खान ने देख कर लापरवाही से कहा-"ताज्जुब की बात है कि एक मामूली देहाती जमींदार के पास इस कदर कीमती आशाइश का सामान कहां से आ गया।" गोपीनाथ पन्त ने नम्रता से कहा-“हुजूर, यह सब सामान बहुत जल्द हुजूर की हमराह बीजापुर जायगा । मेरे मालिक ने हुजूर ही के लिए यह मुहय्या किया है।" ६७