सैनिकों की एक टुकड़ी सेनापति चिमनात्री बापूजी के नेतृत्व में पूना की ओर रवाना की। मुगल पहरेदारों के पूछने पर इस टुकड़ी ने अपने को शाही सेना के दक्षिणी सैनिक बताया और कहा कि वह उनको दी गई चौकियों को सम्हालने जा रही है। सन्देह की निवृति के लिए उन्होंने कुछ घण्टे वहीं सुस्ता लेने के बाद वहां से नगर की ओर कृच किया । यह घटना रविवार ५ अप्रेल, १६६३ के दिन हुई। सूर्यास्त के समय एक वारात ने पूना में बाजा बजाते हुए प्रवेश किया। बारात को भीतर जाने का परवाना था जिनमें बाजे वाले, मशालची, बाराती, दूल्हा, सब मिलाकर कोई १००-१२५ आदमी थे। शिवाजी और उनके १६ आदमी घूस देकर मशालची और बाजे वालों में मिल गए। किसी को भी इन पर कोई सन्देह नहीं हुआ। उस दिन रमजान की छठी तारीत्र थी। दिन भर के उपवास के बाद रात को ढूंस-ठूस कर भरपेट माल-मनीश खाकर सारे नौकर-चाकर और सिपाही गहरी नींद का आनन्द ले रहे थे । कुछ रसोइए आग जलाकर सूर्योदय से पहले ही सहरी तैयार करने की खटपट में थे। शिवाजी का वाल्यकाल और यौवन के प्रारम्भिक दिन इसी महल में व्यतीत हुए थे। वे महल के कोने-कोने से परिचित थे। पूना के गली-कूचे, प्रकट और गुप्त रास्ते भी वे भनीभाँनि जानते थे शिवाजी चिमनाजी वापू को साथ लेकर गुप्त द्वार से महल के भीतर आँगन में जा पहुँचे। सामने ही वाहरी रसोईवर था और उसके बाद अन्तःपुर । दोनों के बीच एक दीवार थी जिसमें एक पुराना दरवाजा था जो अन्तःपुर की आड़ को पूरा करने के लिए ईंट और मिट्टी से पूरा कर दिया गया था। मराठों ने बड़ी आसानी से ईंटें निकालकर उन दरवाजे को खोल लिया। जो लोग रसोई में खाने-पीने की खटपट में लगे थे, वे अचानक इतने आदमियों को देख भौंचक्के रह गए, परन्तु उन्हें अपने मुंह से एक शब्द तक निकालने का अवसर न मिला। उन्हें काट डाला गया और तब शिवाजी चिमनाजी वापू को लेकर अन्तःपुर में जा घुसे । 1 4 ७६
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