पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

और माइम्ताखां को हुक्म दिया कि वह दिल्ली में मुंह न दिवाण और सीधा बङ्गाल चला जाय। उन दिनों वङ्गाल की आबोहवा बहुन खगत्र थी। वहां मलेरिया और हैजा का प्रकोप वारही मास रहता था जिसमें प्रति वर्ष लाखों मनुप्य मर जाते थे। इनके अतिरिक्त अराकान के लुटेरों ने वहां भारी आतंक फैला रखा था। मुगलों का कोई मरदार बङ्गाल जाने को राजी न होता था। बादशाह किम सरदार को दण्ड देना चाहता था, उसे ही वहां भेजता था। दक्षिण की दुबेदारी मागादा मुसम्मन को दे दी गई। शाइन्नाखां दुग्न और गर्म में अधमरा-मा जब औरगाबाद के लिए कुच कर रहा या नो महाराज जानमिद् सहानुभूति प्रकट करने पहुँचे तो उसने खीझ कर कहा-"मैं नो ममना था कि दुश्मन के दावों ग्रास मर चुके हैं।" सूरत को लूट जिस समय रिङ्गाबाद में मुवेदारों की यह अदला-बदली हो रही थी, शिवाजी ने अपने दो-तीन हजार चुने हुए मराठे योद्धात्रों को लेकर मूरत की ओर प्रस्थान किया। इस समय तक नगर की रक्षा के लिए न तो कोई महरपनाह थी, न मेना का ही विशेष प्रवन्ध वहाँ था । जो थोड़ी-बहुत सेना थी, वह किले में रहती थी। मूरत एक महत्वपूर्ण वन्दरगाह और मुगल राज्य का धनधान्य से भरपूर नगर था। वह अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का भी केन्द्र था। योरोपियन और अन्य विदेशी व्यापारियों की वहाँ बड़ी-बड़ी कोठियाँ थीं। इस नगर की केवल चुङ्गी की आमदनी वारह लाख रुपयों की थी। जनवरी के प्रारम्भिक दिन थे। सर्दी काफी थी। अभी सूर्योदय स० च०६