पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/९५

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वीरों के रक्त में मींचा जाकर ही म्बात्रीनदा का बीज उगना है ! महा- राष्ट्र का गौरव मुझ पर अप्रकट नहीं है। मुझे दीयता है कि एक दिन मराठे भारत के प्रवीश्वर बनेंगे । परन्तु मराठों को ग्राम जो शिक्षा दे रहे हैं, वह मुझे टीक नहीं प्रतीत होती । आर उन्हें आज ग्राम दटना मित्राने हैं, कल उत्कर्ष पाकर दे मारे भारतवर्ष को लूटंगे। पात्र प्राय उन्हें चतुराई से जयनान करना मिलते हैं, कल वे नम्मुख युद्ध में जय लाभ नहीं कर सकेंगे। ये वे दोष हैं, जो शानियों के रक्त में धुम जाते हैं। याद रखिए गिाजी राजे, कल जो नाति भारत में हिन्दु राज-राजेश्वर के पद पर विराजमान होगी, आप उनके सूटा, निमांता और गुम हैं । आप उन्हें यदि कुरिभा देगे तो मैकड़ों वर्षों तक देश-देशः, नगर-नगर में जहाँ मगठे जाएंगे, अपने शौयं से नेकनामी हामिल न कर सकेंगे। बार उन्हें राजपूतों की भांति मन्मुख र क्षेत्र में मरना-मारना सिखाइए और कभी मत भूलिए कि आप एक युगावतार हैं। प्राके प्रत्येक प्राच- रण का प्रभाव चिरकाल तक सम्पूर्ण देश पर पड़ेगा।" शिवाजी बहुत देर तक मौन बैठे रहे। जिर बोले-"आप भीष्म के समान राजनीति गुरु हैं, महाराज : आपके चरणों में मेरा मस्तक नत है। पर जब मैं आत्मसमर्पण कर दूंगा तो मराठों को युद्ध को शिक्षा कैसे दूंगा?" "शिवाजी राजे, गजनीति और रमनीति क्षर:-क्षा पर अपना रूप बदलती हैं । बुद्धिमान पुरष समयानुकूल अपना रुख बदलते हैं । जय- पराजय भी मदा कायम नहीं रहतीं। आज हार, कल जीत ! आज आप दिल्लीपति के शरण जाते हो, समय के हेर-फेर से पल दिल्लीपति आपकी शरण पा सकता है। परन्तु आवश्यकता इस बात की है कि जब नक आप निर्वल हैं, तव तक अपनी शक्ति व्यर्थ नष्ट न कर कल के : लिए बचा रखिए। यही सब नीतियों का सार है ।" किर महाराज जयसिंह ने शिवाजी के सिर पर हाथ धर कर कहा-"शिवाजी राजे, ९३